Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 233
________________ उन्हें समभाव से सहन करे । प्रयोग और परिणाम २१५ • एस समिया - परियाए वियाहिते । ( ५ / २७) अहिंसक और सहिष्णु साधक सत्य का पारगामी कहलाता है । • अरंइ आउट्टे से मेहावी । (२ / २७ ) • खणंसि मुक्के । (२/२८) जो पुरुष अरतिका निवर्तन करता है, वह मेधावी होता है । वह क्षणभर में कामनाओं से मुक्त हो जाता है । • समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए । (३/३) सब आत्माएं समान हैं' - यह जानकर पुरुष समूचे जीवन लोक की हिंसा से उपरत हो जाए । • णिज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिणिव्वाणं । ( १ / १२१) तुम प्रत्येक प्राणी की शांति को जानों और देखो । • आयंकदंसी अहियं ति णच्चा । ( १ / १४६) जो पुरुष हिंसा में आतंक और अहित देखता है वही उससे निवृत्त होता है । अहिंसा के तीन आलम्बन हैं १. आतंक - दर्शन - हिंसा से होने वाले आतंक का दर्शन । २. अहित - बोध - हिंसा से होने वाले अहित का बोध | ३. आत्म- तुला - सब जीवों के सुख-दुःख के अनुभव की समानता । जैसे अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरों को सुखप्रिय और दुःख अप्रिय है। जैसे दूसरों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है । २७. ब्रह्मचर्य • कामा दुरतिक्कमा । (२ / १२१) काम दुर्लंघ्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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