Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 232
________________ २१४ - जैन योग • जमिणं परिकहिज्जइ, इसमस्स चेव पडिबूहणयाए । (२/१३६) यह जो मैं कहता हूं कि कामी पुरुष माया का आचरण कर वैर बढ़ाता है, वह शरीर की पुष्टि के लिए ही ऐसा करता है | ___काम और भूख-ये दोनों मौलिक मनोवृत्तियां हैं । मनुष्य इनकी संतुष्टि के लिए दूसरों पर अधिकार करना चाहता है । भौतिकशास्त्र इनकी संतुष्टि का उपाय बतलाता है । अध्यात्मशास्त्र इन्हें सहने की शक्ति के विकास का उपाय बतलाता है । एक अध्यात्मशास्त्री की वाणी में उस उपाय का निर्देश इस प्रकार मिलता है शिश्नोदरकृते पार्थ ! पृथिवीं जेतुमिच्छसि । जय शिहनोदरं पार्थ! ततस्ते पृथिवी जिता ॥ __'राजन् ! काम और भूख की संतुष्टि के लिए तुम पृथ्वी को जीतना चाहते हो । तुम काम और भूख को ही जीत लो । पृथ्वी अपने आप विजित हो जाएगी ।' भगवान् ने कहा-'काम और भूख की संतुष्टि के लिए दूसरों पर अधिकार करने वाला वैर की श्रृंखला को बढ़ाता है । सबके साथ मैत्री चाहने वाला ऐसा नहीं करता ।' • आवंती केआवंती लोयंसि अणारंभजीवी, एतेसुचेव मणारंमजीवी। (५/१९) इस जगत् में जितने मनुष्य अहिंसजीवी हैं, वे विषयों में अनासक्त होने के कारण ही अहिंसाजीवी हैं। • पुढो छंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेदितं । (५/२५) इस जगत् में मनुष्य नाना प्रकार की इच्छा वाले होते हैं । उनका दुःख भी नाना प्रकार का होता है । • से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, 'पुट्ठो फासे विष्णोल्लए । (५/२६) 'सुख-दुःख का अध्यवसाय स्वतंत्र होता है' इसे जानकर पुरुष किसी की हिंसा न करे, जीवों के अस्तित्व को स्वीकार करे । जो कष्ट प्राप्त हों. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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