Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 238
________________ २२०जैन योग • जेण सिया तेण णो सिया । (२ / ८८) जिससे सुख होता है, उससे नहीं भी होता । • इणमेव णावबुज्झंति, जे जणा मोहपाउडा । (२/८९) मोह से अतिशय आवृत्त मनुष्य पौद्गलिक सुख की अनेकांतिकता को भी नहीं समझ पाते । उड़ढं सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया । एते सोया वियक्खया, जेहिं संगति पासहा ॥ ( ५ / ११८ ) ऊपर स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं, मध्य में स्रोत हैं । इनके द्वारा मनुष्य आसक्त होता है । इसे तुम देखो । ३०. संवर • आवट्ट तु उवेहाए, एतथ विरमेज्ज वेयवी । ( ५ / ११९) राग और द्वेष के आवर्त का निरीक्षण कर ज्ञानी पुरुष उससे विरत हो जाए । • विणएत्तु सोयं णिक्खम्म, एस महं अकम्मा जाणति पासति । (५/१२०) इनिद्रय विषयों का परित्याग कर निष्क्रमण करने वाला महान् साधक अकर्म (ध्यानस्थ ) होकर जानता देखता है । • संधिं समुप्पेहमाणस्स एगायतणरयस्स इह विप्पमुक्कस्स णत्थि मग्गे विरयस्स ..... । (५/३०) जो कर्म-विवर (आस्रव) को देखता है, वीतरागता में लीन है, शरीर आदि के ममत्व से मुक्त है, हिंसा से विरत है, उसके लिए कोई मार्ग नहीं है । जन्म, जरा, रोग और मृत्यु- ये चार दुःख के मार्ग हैं । विरत के लिए ये मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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