Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 226
________________ २०८ - जैन योग १७. कर्म • इति कम्मं परिण्णाय, सव्वसो से ण हिंसति । संजमति णो पगब्भति । (४/५१) इस प्रकार कर्म को पूर्णरूप से जानकर वह किसी की हिंसा नहीं करता । वह इन्द्रियों का संयम करता है, उनका कभी उच्छंखल व्यवहार नहीं करता। १८. सुख-दुःख • सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेति । (२/१५१) सुख का अर्थी बार-बार सुख की कामना करता है । वह इस कामना की व्यथा से मूढ़ होकर विपर्यास को सुख प्राप्त होता है-दुःख पाता है | १९. विराग • विरागं रूवेहिं गच्छेज्जा, महया खुड्डएहि वा । (३/५७) पुरुष क्षुद्र या महान् सभी प्रकार के रूपों (पदार्थों) के प्रति वैराग्य धारण करे । जमिणं अण्णमण्णावितिगिच्छाए पडिलेहाए ण करेइ पावं कम्म, किं तत्थ मुणी कारणं सिया ? (३/५४) जो परस्पर एक-दूसरे की आशंका से या दूसरे के देखते हुए पाप-कर्म नहीं करता, क्या उसका कारण ज्ञानी होना है ? पाप-कर्म नहीं करने की प्रेरणा अध्यात्मज्ञान है । अध्यात्मज्ञानी जैसे दूसरों के प्रत्यक्ष में पाप नहीं करता, वैसे ही परोक्ष में भी पाप नहीं करता। जो व्यावहारिक बुद्धि वाला होता है, वह दूसरों के प्रत्यक्ष में पाप नहीं करता, किंतु परोक्ष में पाप करता है । __ शिष्य ने पूछा-गुरुदेव ! जो व्यक्ति दूसरों के भय, आशंका या लज्जा से प्रेरित हो पाप नहीं करता, क्या यह आध्यात्मिक त्याग है ? गुरु ने कहा-यह आध्यात्मिक त्याग नहीं है । जिसके अन्तःकरण में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242