Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 229
________________ प्रयोग और परिणाम - २११ जो पुरुष मोक्ष की ओर गतिशील है के विपर्यासपूर्ण जीवन जीने की इच्छा नहीं करते । वे जन्म-मरण को जानकर मोक्ष के सेतु पर दृढ़तापूर्वक चलें। २४. सहिष्णुता . जे असता पावेहिं कम्महिं, उदाहु ते आयंका फुसति । इति उदाहु वीरे ते फासे पो हियासए ।। (५/२८) जो पाप कर्म में आसक्त नहीं है, उन्हें कभी-कभी शीघ्रघाती रोग पीड़ित कर देते हैं । भगवान् महावीर ने कहा-उन शीघ्रघाती रोगों के उत्पन्न होने पर पुरुष उन्हें सहन करे । २५. संयम __ पलिथिंदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहिं । (४/५०) इन्द्रियों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोककर इस मरण-धर्मा जगत् में तुम अमृत को देखो। जिसकी इन्द्रियों का प्रवाह नश्वर विषयों की ओर होता है, वह अमृत को प्राप्त नहीं हो सकता । उसकी प्राप्ति के लिए इन्द्रिय प्रवाह का मोड़ना आवश्यक होता है । जिसकी सारी इन्द्रियां अमृत के दर्शन में लग जाती हैं, वह स्वयं अमृतमय बन जाता है । निष्कर्म के पांच अर्थ किए जा सकते हैं-शाश्वत, अमृत, मोक्ष, संवर और आत्मा । कर्म को देखने वाला कर्म को प्राप्त होता है और निष्कर्म को देखने वाला निष्कर्म को प्राप्त होता है । निष्कर्मदर्शन योग साधना का बहुत बड़ा सूत्र है। निष्कर्म का दर्शन चित्त की सारी वृत्तियों को एकाग्र कर करना चाहिए । उस समय केवल आत्मा या आत्मोपलब्धि के साधन को ही देखना चाहिए | अन्य किसी वस्तु पर मन नहीं जाना चाहिए। . संजमति णो पगब्भति । (५/५१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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