Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 227
________________ प्रयोग और परिणाम २०९ पापकर्म छोड़ने की प्रेरणा नहीं है, वह निश्चय नय में ज्ञानी नहीं है । जो दूसरों के भय से पाप-कर्म नहीं करता, वह व्यवहार नय में ज्ञानी है । २०. कषाय-परित्याग सेवंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च । (३/७१) साधक क्रोध, मान, माया और लोभ को छोड़ दे । कसाए पयणुए किच्चा... । ( ८/१०५) साधक कषाय को कृश करे । २१. वीतरागता I दुहओ छेता नियाइ । (८/४०) साधक राग और द्वेष-- दोनों बंधनों को छिन्न कर नियमित जीवन जीता कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के । (२/१८२) कुशल न बद्ध होता है और न मुक्त होता है । कुशल का अर्थ है ज्ञानी | धर्म-कथा में दक्ष, विभिन्न दर्शनों का पारगामी, अप्रतिबद्ध विहारी, कथनी और करनी में समान, निद्रा एवं इन्द्रियों पर विजय पाने वाला, साधना में आने वाले कष्टों का पारगामी और देश-काल को समझने वाला मुनि 'कुशल' कहलाता है । तीर्थंकर को भी कुशल कहा जाता है ।.. २२. प्रतिपक्ष भावना लोभं अलोभेण दुगंछमाणे, लद्धे कामे, नाभिगाहइ । (२ / ३६ ) जो पुरुष अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त कामों का सेवन नहीं करता । • विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति - पासति । (२ / ३७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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