Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 225
________________ १६. विपाकविचय • अरई आउट्टे से मेहावी । (२ / २७) जो अरति (चैतसिक उद्वेग) का निवर्तन करता है, वह मेधावी होता है । संयम में रति और असंयम में अरति से चैतन्य और आनन्द का विकास होता है । संयम में अरति और असंयम में रति करने से उसका ह्रास होता है; इसलिए साधक को यह निर्देश दिया है कि वह संयम में होने वाली अरति का निवर्तन करे | प्रयोग और परिणाम २०७ भूहिंजाण पडिलेह सातं । (२/५२) साधक ! जीवों के कर्म-बंध और कर्म विपाक को जान और उनके सुखदुख को देख | समिते एयाणुपस्सी । (२/५३) तं जहां अंधत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुंटत्तं खुज्जंतं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं । (२/५४) सम्यग्दर्शी पुरुष इष्ट-अनिष्ट कर्म विपाक को देखता है। जैसे - कोई अंधा है और कोई बहरा; कोई गूंगा है और कोई काना; कोई लूला है, कोई कुबड़ा है और कोई बौना; कोई कोढ़ी है और कोई चितकबरा है । • सहपमाएणं अणेगरुवाओ जोणीओ संधाति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेई । (२ / ५५) पुरुष अपने ही प्रमाद से विभिन्न योनियों में जाता है और विविध प्रकार के आघातों का अनुभव करता है । से अबुज्झमाणे हतोवहते जाइमरणं अणुपरियट्टमाणे । (२ / ५६ ) वह प्रमत्त पुरुष कर्म विपाक को नहीं जानता हुआ व्याधि से हत और अपमान से उपहृत होता है । वह बार-बार जन्म और मरण करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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