Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 222
________________ २०४ - जैन योग है, अतीत के अनेक जन्मों को देख लेता है । जैसे दस-बीस वर्ष पूर्व की घटना हमारी स्मृति में उतर आती है, वैसे ही पूर्व-जन्म भी हमारी स्मृति में होना चाहिए। किंतु ऐसा नहीं होता । उसका कारण संमूढ़ता है | जन्म और मरण के समय होने वाले दुःख से संमूढ़ बने हुए व्यक्ति को पूर्व-जन्म की स्मृति नहीं हो सकती जातमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स, जंतुणो । तेण दुक्खेण संमूढ़ो, जाति ण सरति अप्पणो ॥ जन्म को देखने से, उस पर ध्यान केन्द्रित करने से संमूढ़ता दूर हो जाती है और पूर्व-जन्म की स्मृति हो जाती है । • णातीतमढ् ण य आगमिस्सं, अट्ठ नियच्छंति तहागया उ । विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी ।। (३/६०) तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते । धुताचार वाला महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो, कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है । कुछ साधक अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य के भोगों की अभिलाषा नहीं करते । कुछ साधक कहते हैं-अतीत भोग से तृप्त नहीं हुआ; इससे अनुमान किया जाता है कि भविष्य भी भोग से तृप्त नहीं होगा। अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य के भोगों की अभिलाषा से राग, द्वेष और मोह उत्पन्न होते हैं । इसलिए तथागत (वीतरागता की साधना करने वाले) अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते-राग-द्वेषात्मक चित्त-पर्याय का निर्माण नहीं करते । जिसका आचार राग, द्वेष और मोह को शांत या क्षीण करने वाला होता है वह विधूत-कल्प कहलाता है । वह तथागत विधूत-कल्प ‘एयाणुपस्सी' होता है । इसके तीन अर्थ हैं१. एतदनुपश्यी-वर्तमान में घटित होने वाले यथार्थ को देखने वाला। २. एकानुपश्यी-अपनी आत्मा को अकेला देखने वाला । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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