Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 220
________________ २०२ - जैन योग १. अधोभाग-आंख का गड्ढा, गले का गड्ढा, मुख के बीच का भाग । २. ऊर्ध्वभाग-घुटना, छाती, ललाट, उभरे हुए भाग । ३. तिर्यग्भाग-समतल भाग । साधक देखे-शरीर के अधोभाग में स्रोत है, ऊर्श्वभाग में स्रोत है और मध्यभाग में स्रोत-नाभि है । शरीर को समग्रदृष्टि से देखने की साधना-पद्धति बहुत महत्त्वपूर्ण है । प्रस्तुत सूत्र में उसी शरीर-विपश्यना का निर्देश है ।। २. प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का दूसरा नय है दीर्घदर्शी साधक देखता है-लोक का अधोभाग विषय-वासना में आसक्त होकर शोक आदि से पीड़ित है । लोक का ऊर्श्वभाग भी विषय-वासना में आसक्त होकर शोक से पीड़ित लोक का मध्यभाग भी विषय-वासना में आसक्त होकर शोक आदि से पीड़ित है। ३. प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या का तीसरा नय यह है दीर्घदर्शी साधक मनुष्य के उन भावों को जानता है, जो अधोगति के हेतु बनते हैं; उन भावों को जानता है, जो ऊर्ध्वगति के हेतु बनते हैं; उन भावों को जानता है, जो तिर्यग् (मध्य) गति के हेतु बनते हैं । ४. इसकी त्राटक-परक व्याख्या भी की जा सकती है आंखों को विस्फारित और अनिमेष कर उन्हें किसी एक बिंदु पर स्थिर करना त्राटक है । इसकी साधना सिद्ध होने पर ऊर्ध्व, मध्य और अधः-ये तीनों लोक जाने जा सकते हैं । इन तीनों लोकों को जानने के लिए इन तीनों पर ही त्राटक किया जा सकता है। भगवान् महावीर ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में ध्यान लगाकर समाधिस्थ हो जाते थे । इससे ध्यान की तीन पद्धतियां फलित होती हैं१. आकाश-दर्शन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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