Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 200
________________ १८२ - जैन योग उससे श्वास लें और दूसरे नथुने से छोड़ें। हर आवृत्ति में श्वास-प्रश्वास का यही क्रम रहे । मन श्वास के साथ-साथ चले । इसमें एक नथुने को अंगुली से बंद कर दूसरे से श्वास लिया जाता है और इसी प्रकार छोड़ा जाता है । किन्तु अंगुली का प्रयोग कभी-कभी भले ही करें, मुख्यतया संकल्प के बल पर ही श्वास लेने या छोड़ने का अभ्यास करें। प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में समान समय लगाएं और मन निरंतर श्वास की प्रेक्षा करता रहे । समवृत्ति श्वास की प्रेक्षा से विशेषतः अतीन्द्रियज्ञान के चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं । शरीर-प्रेक्षा : अभ्यास-क्रम प्रेक्षा का अभ्यास दो प्रकार से किया जा सकता है-पूरे शरीर की प्रेक्षा और शरीर के कुछ विशिष्ट चैतन्य केन्द्रों की प्रेक्षा । सर्व शरीर प्रेक्षा सुखासन या पद्मासन में स्थित हो कायोत्सर्ग करें। सिर से लेकर पैर तक क्रमशः शरीर के प्रत्येक अवयव को मानसिक चक्षु से देखें, पहले बाहर के और फिर भीतर के पर्यायों को देखें । शरीरगत सुखद व दुःखद स्पन्दनों का अनुभव करें । प्रिय और अप्रिय स्पंदनों के प्रति तटस्थ रहें । देश शरीर प्रेक्षा विशिष्ट चैतन्य केन्द्रों की प्रेक्षा करें तब उन केन्द्रों को लंबे समय तक देखते रहें । विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भिन्न-भिन्न केन्द्रों की प्रेक्षा अपेक्षित होती है । इसलिए इस विषय में प्रेक्षा ध्यान का अभ्यास किसी अनुभवी व्यक्ति के पथदर्शन में ही करना चाहिए | अनिमेष प्रेक्षा : अभ्यास-क्रम एक बिन्दु पर दृष्टि टिकाएं । वह बिंदु दृष्टि की समरेखा में दो या तीन फीट की दूरी पर होना चाहिए | उसे अपलक देखते रहें । पलक झपकें नहीं। यदि झपक जाए तो दूसरी बार फिर शुरू करें, किंतु अनिमेष ध्यान का समय लगातर जितने समय तक अपलक रहे, उतना ही माना जाए । प्रारम्भिक अभ्यास पांच मिनिट से शरू करें । फिर धीरे-धीरे समय बढ़ाएं । आधा घंटा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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