Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 215
________________ प्रयोग और परिणाम १९७ अर्थ संदेह है । 'न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति' - संशय का सहारा लिए बिना मनुष्य कल्याण को नहीं देखता । इस पद में संशय का अर्थ जिज्ञासा है । संसार का अर्थ है - जन्म मरण की परंपरा । जब तक उसके प्रति मन में संशय होता, वह सुखद है या दुःखद, ऐसा विकल्प उत्पन्न नहीं होता, तक वह चलता रहेगा । उसके प्रति संशय उत्पन्न होना ही उसकी जड़ में प्रहार करता है । तब ११. अशौच अनुप्रेक्षा जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो । (२ / १२९) यह शरीर जैसा भीतर है वैसा बाहर है, जैसा बाहर है वैसा भीतर है । अंतो अंतो देहंतराणि पासति पुढोवि सवंताई । (२/१३०) पुरुष इस अशुचि शरीर के भीतर से भीतर देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है । कुछ दार्शनिक अन्तस् की शुद्धि पर बल देते हैं और कुछ बाहर की शुद्धि पर । भगवान् महावीर एकांगी दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने दोनों को एक साथ देखा और कहा - केवल अन्तस् की शुद्धि पर्याप्त नहीं है । बाहरी व्यवहार भी शुद्ध होना चाहिए । वह अन्त का प्रतिफलन है । केवल बाहरी व्यवहार का शुद्ध होना भी पर्याप्त नहीं है । अन्तस् की शुद्धि के बिना वह कोरा दमन बन जाता है । इसलिए अन्तस् भी शुद्ध होना चाहिए । अन्तस् और बाहर - दोनों की शुद्धि ही धार्मिक जीवन की पूर्णता है । 1 चित्त को कामना से मुक्त करने का चौथा आलंबन है - शरीर की अशुचिता का दर्शन । एक मिट्टी का घड़ा अशुचि से भरा हुआ है। वह अशुचि झर कर बाहर आ रही है । वह भीतर से अपवित्र है और बाहर से भी अपवित्र हो रहा है I यह शरीर -घट भीतर से अशुचि है । इसके निरंतर झरते हुए स्रोतों से बाहरी भाग भी अशुचि हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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