Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 216
________________ १९८ - जैन योग यहां रुधिर है, यहां मांस है, यहां मेद है, यहां अस्थि है, यहां मज्जा है, यहां शुक्र है । साधक गहराई में पैठकर इन्हें देखता है । देहान्तर–अन्तर का अर्थ है-विवर | साधक अन्तरों को देखता है । वह पेट के अन्तर (नाभि), कान के अन्तर (छेद), दाएं हाथ और पार्श्व के अन्तर तथा बाएं हाथ और पार्श्व के अन्तर, रोम-कूपों तथा अन्य अन्तरों को देखता है । इस अन्तर-दर्शन से उसे शरीर का वास्तविक रूप ज्ञात हो जाता है । उसकी कामना शांत हो जाती है । १२. भावना • तदिवट्ठीय तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे सत्सण्णी तन्निवेसणे । (५/११०) साधक ध्येय के प्रति दृष्टि नियोजित करे, तन्मय बने ध्येय को प्रमुख बनाये, उसकी स्मृति में उपस्थिति रहे, उसमें दत्तचित रहे । १३. प्रेक्षा • इह आणाकंखी पंडिए अणिहे एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं । (४/३२) ज्ञानी पुरुष आत्मा की ही संप्रेज्ञा करता हुआ अनासक्त हो जाए | वह कर्म शरीर को प्रकंपित करे और कषाय-आत्मा को कृश करे, जीर्ण करे । _ “एगमप्पाणं संपेहाए'-यह पद एकत्व और अन्यत्व भावना का प्रतीक है । आत्मा अकेला कर्म करता है, अकेला ही उसका फल भोगता है; अकेला उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही जन्मान्तर में जाता है एकः प्रकुरुते कर्म, भुक्ते एकश्च तत्फलम् । जायत्येको म्रियत्येकः, एको याति भवान्तरम् ।। 'शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न है' यह अन्यत्व भावना है । 'मैं सदा अकेला हूं, मैं किसी दूसरे का नहीं हूं । मैं अपने आप को जिसका बता सकूँ, उसे नहीं देखता और जिसे मैं अपना कह सकूँ, उसे भी नहीं देखता सदैकोऽहं न मे कश्चित् नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ भावीति यो मम ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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