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साधना की भूमिकाएं
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जब अनेकांतदृष्टि जागती है तब सारे आग्रह टूट जाते हैं । उस समय केवल सत्य ही सामने रहता है । न पूर्व की मान्यता रहती है और न पश्चिम की मान्यता रहती है, न पहले की मान्यता टिकती है और न बाद की मान्यता टिकती हैं । वही टिकती है जो यथार्थ होता है। अंतर्दृष्टि की एक धारा हैं. सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शन की एक धारा है अनेकांत ।
अतीन्द्रिय ज्ञान की स्वीकृति
I
अंतर्दृष्टि का दूसरा लक्षण है - अतीन्द्रिय ज्ञान की स्वीकृति | जब तक मूढ़ अवस्था रहती है तब तक मनुष्य अतीन्द्रिय ज्ञान की सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकता । कषाय का कुहरा इतना सघन होता है, मूर्च्छा इतनी सघन होती है कि मनुष्य के यह समझ में भी नहीं आ सकता कि इन्द्रियों के परे भी कुछ हो सकता है । वह यही मानता है कि जो इन्द्रियगम्य है वही सत्य है, यथार्थ है । जो इन्द्रियगम्य नहीं है, अतीन्द्रिय है, उसे कैसे माना जा सकता है ? हजार प्रयत्न करने पर भी वह इस सत्य को नहीं जान पाता । किंतु जब यह मूर्च्छा टूटती है, जब उसका अनन्त अनुबंध सीमित हो जाता है, जब वह नए-नए मोहों का निर्माण नहीं करता तब उसकी यह चेतना जागती है कि अतीन्द्रिय सत्य भी हो सकता है । इन्द्रियों से परे भी सत्य है । अतीन्द्रिय सत्य को स्वीकृति देने वाली चेतना की जागृति होते ही अतीन्द्रिय सत्यों की खोज प्रारम्भ हो जाती है। ऐसा नहीं होता कि अंतर्दृष्टि के जागते ही सारा अतीन्द्रिय सत्य उपलब्ध हो जाता है । सारा अतीन्द्रिय सत्य उपलब्ध नहीं होता, किंतु अतीन्द्रिय सत्य की दिशा में उसकी चेतना गतिशील हो जाती है । उसे खोज निकालने की प्रवृत्ति प्रारंभ हो जाती है । अब उस अतीन्द्रिय सत्य के प्रति होने वाली अनास्था, विचिकित्सा और आशंका समाप्त हो जाती है । जिस व्यक्ति में अतीन्द्रिय सत्य को स्वीकार करने की क्षमता जागृत हो गई तो समझना चाहिए कि अंतर्दृष्टि का जागरण हो गया है ।
अनन्त अनुबंध की समाप्ति
अंतर्दृष्टि का तीसरा लक्षण है-अनन्त अनुबंध की समाप्ति | अंतर्दृष्टि से संपन्न व्यक्ति नए-नए मोहों का निर्माण नहीं करता । वह नई-नई मूढ़ता
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