Book Title: Jain Tattvasara Saransh
Author(s): Surchandra Gani
Publisher: Jindattasuri Bramhacharyashram

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Page 10
________________ वस्तुमात्र को अपनी अपनी अपेक्षा से देखने से वैसा ही स्वरूप दीखता है । इतना आवश्यक है कि, जब तक इसी दृष्टिकोण से देखा न जावे शुद्ध स्वरूप प्रकट नहीं हो सकता, न सत्यासत्य की छानवीन हो सकती हैं । महात्मा गांधीजीने भी कहा है कि जैनों का अनेकांतवाद मुझे बहुत प्रिय है । उसी के अभ्यास से मुसलमानों की परीक्षा मुसलमानों की दृष्टि से और इसाइयों की इसाइ दृष्टि से करना सीखा हूं । मेरे विचारों को कोई गलत समझे उस समय मुझे उस के अज्ञान के बारे में पहले गुस्सा चढता था, परन्तु अब मैं उस की दृष्टिकोण से उस को देख सकता हूं इस वास्ते उस पर भी प्रेम करता हूं । इस प्रकार स्याद्वाद का महान सिद्धान्त विश्व में भ्रातृभाव को फैलानेवाला है, और वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में अति उपयोगी है। इस के बिना अनेक मत मतांतरों के झगडे खडे हो गये है । विचारवानों को जरुर इस का अभ्यास करना चाहीये। इतना स्याद्वाद का दिग्दर्शन कराने बाद मानसिक जीवन उत्क्रान्तिभूत समभाव का विषय चर्चा गया है । यही शिवमार्ग की सीधी सड़क है, विचारवानों को हितकारी हैं । तराजूं के दोनों पलड़े बराबर न हो तब तक तराजू की सुई बीच में नहीं ठहर सकती, इस लिये समभावी राग-द्वेष में नही फंसते हुवे अपनी चित्तवृत्ति को अलग रख सकता है । इस लिये राग में फसता नही, द्वेष में लिपटता नही, हमेशां श्रात्मिक ध्यान में निमग्न रह कर श्रात्मकल्याण कर सकता है । इस प्रकार

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