Book Title: Jain Tattva Sara Author(s): Kanhiyalal Lodha Publisher: Prakrit Bharati Academy View full book textPage 9
________________ सार' एवं योग के सार रूप में 'अमनस्क योग' लिखने के लिए मुझे प्रोत्साहित किया। अतः आपकी ही प्रेरणा से यह 'जैनतत्त्व सार' पुस्तक लिख रहा हूँ। उपर्युक्त पुस्तकों में जीव - अजीव तत्त्व से लेकर मोक्ष तत्त्व तक सम्पूर्ण नव ही तत्त्वों का विवेचन आगम एवं कर्म सिद्धान्त के आलोक में, सर्व साधारण के जीवन के अनुभव एवं ज्ञान के अनुरूप सरल भाषा में किया गया है । जिससे साधक पाठक प्रेरणा प्राप्त कर, सही आचरण अपनाकर कल्याण साध सके । प्रस्तुत तत्त्वज्ञान सार पुस्तक में विस्तृत वर्णन न कर संक्षेप में निरूपण किया गया है। साथ में नवतत्त्वों पर प्रकाशित पुस्तकों की भूमिका, प्राक्कथन एवं आमुख (सम्पादकीय) का भी समावेश किया गया है, जिनसे मूल पुस्तकों में प्रतिपादित तत्त्वों की साररूप जानकारी प्राप्त हो सकेगी। जैन तत्त्व सार पुस्तक में तत्त्वों का विवेचन संकेत मात्र है, उसका वास्तविक व पूर्ण रूप मूल पुस्तकें पढ़ने से ही समझा जा सकता है । मुक्ति और तत्त्वबोध जैन धर्म में मुक्ति प्राप्ति की साधना का मूलाधार सम्यग्दर्शन है अर्थात् सत्य का साक्षात्कार करना है । सत्य ही वास्तविक तत्त्व व तथ्य है। सत्य का साक्षात्कार व प्रत्यक्ष अनुभव करना ही तत्त्व बोध है। 'सत्य' शब्द सत् से बना है अर्थात् जिसकी सत्ता सदा रहे, जिसमें कभी भी, कहीं भी, परिवर्तन नहीं हो, दूसरे शब्दों में कहें तो जो स्वयं सिद्ध हो, जो सबके लिए समान हो अर्थात् सार्वजनीन हो, अपौरुषेय हो, जो सब काल में एक-सा रहे अर्थात् सार्वकालिक व सनातन हो, कल से अप्रभावित हो, कालातीत हो, अकालिक हो, जो सब स्थानों में समान रहे, सार्वभौमिक हो, जो सब स्थितियों में समान रहे, परिस्थितियों से प्रभावित नहीं हो, वह सत्य है । शान्ति, पूर्णता, स्वाधीनता, अमरत्व आदि सभी को सदा सर्वदा, सर्वत्र इष्ट हैं। इनकी इष्टता का ज्ञान मानव मात्र को स्वतः प्राप्त है, किसी को इनकी इष्टता को जानने के लिए इन्द्रिय, मन व बुद्धि के ज्ञान की आवश्यकता नहीं है अर्थात् यह स्वयं सिद्ध निज ज्ञान है, इसी को विवेक भी कहा है । इनको प्राप्त हुए बिना किसी को भी सन्तुष्टि नहीं होती है । जो स्वतः सदा सर्वदा, सर्वत्र प्राप्त हो, जिसका अभाव कभी नहीं हो, वह ही सत्य है, स्वभाव है। जिसका नाश हो जाय, जो कभी इष्ट हो, कभी इष्ट नहीं हो, वह विभाव है, वह अनिष्ट है। इसके विपरीत अशान्ति, अभाव, पराधीनता आदि किसी को भी इष्ट नहीं है, परन्तु भ्रान्ति से इष्ट [ VIII ] जैनतत्त्व सारPage Navigation
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