Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 5
________________ [३] है, इसीको जीवास्तिकाय कहते हैं। यहाँ पाँचो द्रव्यों के अस्ति .काय का नात्पर्य यह है कि अस्ति, प्रदेश (विभाग रहित वस्तु) का नाम होने से, प्रदेशों से जो कहा जाय याने व्यवहृत हो। (२) धर्मास्तिकाय अरूपी पदार्थ है, जो जीव और पुद्गल दोनों की गति में सहायक है । जीव और पुद्गल में चलने की सामर्थ्य है लेकिन धर्मास्तिकाय की सहायता के विना फलीभन नहीं हो सकते; जैसे मत्स्य ( मछली ) में चलने की सामथ्र्य है लेकिन पानी के विना नहीं चल सकती। धर्मास्तिकाय के १स्कन्ध देशप्रदेश ये तीन भेद कहे गये हैं। . १ स्कन्ध, एक समूहात्मक पदार्थ को कहते हैं; २ देश, उसके नाना भागों को कहते हैं; ३ प्रदेश, उसको कहते हैं कि जिसमें फिर विभाग न होसके । (३) अधर्मास्तिकाय एक अरूपी पदार्थ है जो नीव ' और पुद्गल के स्थिर रहने के लिये सहायक है। जैसे मछली को स्थल अथवा पथिक (मुसाफर ) को वृक्ष की छाया सहायक है। यदि यह पदार्थ न हो तो जीव और पुद्गल दोनों क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रह सकते । इन दोनों पदार्थों (धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ) को लेके जैनशास्त्र में लोक और अलोक की व्यवस्था युक्तिपूर्वक कही गई है। जहाँतक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय है वहाँ ही तक लोक है, उसके आगे अलोक है। अलोक में आकाश के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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