Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 6
________________ [४] अतिरिक्त कुछ पदार्थ नहीं है । इसलिये मोक्षगामी की स्थिति लोक के अन्त में बतलाई गई है। क्योंकि पूर्वोक्त दोनों पदार्थ, लोक के आगे नहीं हैं इसीलिये अलोक में किसी की गति भी नहीं है । अत एव लोक के अन्त में ही जीव स्थिर रहता है । यदि ऐसा नहीं मानें तो कर्ममुक्त जीव की ऊर्ध्वगति होनेसे कहीं भी विश्राम न हो, बल्कि बराबर ऊपर चलाही जाय; इसीलिये जो लोग दो पदार्थों को नहीं मानते, वे मोक्ष के स्थान की व्याख्या में संदिग्ध रहते हैं और स्वर्ग के तुल्य नाशमान पदार्थ को मोक्ष मानते हैं। यदि पूर्वोक्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय दोनों पदार्थों को मानलें तो जरा भी लोक की व्यवस्था में उन्हें हानि न पहुँचे । अधर्मास्तिकाय के भी स्कन्ध, देश, प्रदेश ये भेद माने गये हैं। (४) आकाशास्तिकाय भी एक अरूपी पदार्थ है, जो जीव और पुद्गल को अवकाश ( स्थान ) देता है। वह लोक और अलोक दोनों में है । यहां पर भी स्कन्धादि पूर्वोक्त तीनों भेद हैं। (५) पुद्गलास्तिकाय संसार के समी रूपवान् जड़ * लोक प्रकाश के पृष्ठ ५७ में लिखा है यावन्मानं नरक्षेत्रं तावन्मानं शिवास्पदम् । यो यत्र म्रियते तत्रैवोद्ध्वं गत्वा स सिद्ध्यति ॥ ८३ ॥ उत्पत्त्योद्ध्वं समश्रेण्या लोकान्तस्तैरलकृतः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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