Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 24
________________ [ २२ ] वरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्यवज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय । इन पूर्वोक्त पाँचो आवरणों के दूर होने से जैनशास्त्रकार पाँच ज्ञानों की प्राप्ति बताते हैं । उनके नाम - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान, हैं । वास्तविक में तो केवलज्ञान के, बाकी चारों मतिज्ञानादिक अंश हैं । जैसे सूर्यपर जिस २ तरह मेघ का आवरण बढ़ता जाता है, उसी उसी तरह सूर्य का प्रकाश कम होता जाता है, । वैसेही ज्ञान भी, न्यूनाधिक आवरण लगने से न्यूनाधिक प्रकाशित होता है, इसलिये मतिज्ञानादि संज्ञा को प्राप्त होता है । इस विषय में कितनेक आचार्यों का भिन्न भिन्न मत है । वे लोग कहते हैं कि जैसे ग्रह, नक्षत्र, चन्द्र वगैरह सूर्य के उदय होने के समय विद्यमान तो अवश्य रहते हैं किन्तु उनका उसके तेज के समीप प्रत्यक्ष नहीं होता, वैसेही केवलज्ञान जब उदय होता है तब मतिज्ञानादिक ढक जाते हैं, किन्तु उनकी सत्ता तो अवश्य ही रहती है । पूर्व पाँचो ज्ञानों में तारतम्य, आवरण के क्षयोपशम को लेकर माना गया है । हमलोग साक्षात् अनुभव करते हैं कि वादी और प्रतिवादि के संवाद में वादी पदार्थ को अच्छी तरह जानते हुए भी बहुधा उस समय भूल जाता है; इसमें आवरण के सिवाय कोई दूसरा और कारण नहीं है । । इसीरीति से दर्शनावरणीय कर्म के भी उत्तर ९ भेद www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat

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