Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 30
________________ [ २८ ] , प्रमाद है । धर्मशास्त्र की मर्यादा से रहित बर्ताव करना अविरति कहलाती है । चार प्रकार मन की चार प्रकार वचन की और सात प्रकार काया की शुभाशुभरूप प्रवृत्ति से, योग के पन्द्रह प्रकार माने गये हैं । ये पूर्वोक्त चार प्रकार के कारण से कर्म, आत्मा के साथ संबद्ध होता है । कर्मबन्धन के चारो कारण से दूर रहने के लिये अर्हनदेव ने प्रवृत्ति और निवृत्ति दो मार्ग बताये हैं । उन्होंने प्रवृत्तिमार्ग को निवृत्तिमार्ग का कारण मानकर शुद्ध प्रवृत्तिमार्ग का सेवन जीव को किस प्रकार करना चाहिये इस बात को केवलज्ञान द्वारा जानकर; जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष का स्वरूप बताकर मोक्षरूप महासुन्दर महलपर चढ़ने के लिये १४ सोपान [ सीढ़ी ] की श्रेणी [ परम्परा ] बताई हैं | | दस सीढ़ी पर्यन्त शुद्ध प्रवृत्ति की आवश्यकता ६ * योगशास्त्र के विवरण के ११४ पृष्ठ में ये सब लिखे हैं:मनोवचनकायानां यत्स्यात् कर्म स आश्रवः' । ' सर्वेषामाश्रवाणां यो रोधहेतुः स संवरः ' । ' कर्मणां भवहेतूनां जरणादिह निर्जरा '' सकषायतया जीवः कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान् यदादत्ते स बन्धः स्यात् ॥ " 6 1 १ मिध्यात्व २ सास्वादन ३ मिश्र ४ अविरतिसम्यग् - दृष्टि ५ देशविरति ६ प्रमत्त ७ अप्रमत्त ८ निवृत्तिबादर ९ अनि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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