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જૈન ગ્રંથમાળા
દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨
૩૦૦૪૮૪૬.
गदर्शन।
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–વિનવવર્મસૂરિ.
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प्रकाशकश्री यशोविजयजी जैन ग्रंथमाळा
भावनगर.
शिवगंजनिवासी (सिरोही स्टेट) शाह हीराचंद दलीचंदजी के सुपुत्रो-शाह अमरचंद, शाह जवानमल और शाह कुंदनमल की तर्फसें
अपने पिताजी के स्मरणार्थ मेट.
मुद्रक :
शाह गुलाबचंद लल्लुमाइ श्री महोदय प्रेस, दाणापीठ-भावनगर.
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॥ अर्हम् ॥
जैनतत्त्व-दिग्दर्शन.
स्याद्वादो वर्त्तते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यपीडनं किञ्चित् जैनधर्मः स उच्यते ॥ १ ॥ सज्जनमहाशय !
जैनदर्शन की अनेकान्तवाद, स्याद्वादमत, आर्हतदर्शन आदि नामों से संसार में प्रसिद्धि है और इन्हीं नामों से षड्दर्शनानुयायी लोग व्यवहार में लाते हैं । उस जैनदर्शन का तत्व सामान्य रीति से दिग्दर्शनमात्र यहाँ पर कराया जासकता है; क्योंकि कहना विशेष है और समय बहुत ही थोड़ा है । जब कि जैनधर्माचार्यों ने, तीक्ष्णबुद्धि और दीर्घायु, तथा समस्त शास्त्र में प्रवीण होनेपर भी स्पष्ट रूप से कहा कि ' हमलोग स्वल्प बुद्धिवाले, स्वल्प आयु होनेके कारण; अनन्त, अतिगम्भीरस्वरूप ज्ञेय ( तत्र ) को यथार्थ नहीं कह सकते ; तो अत्यन्त अल्पबुद्धिवाले अत्यल्प समय में अतिगहन विषय की मीमांसा करना हमलोगों का साहसमात्र
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[२] के सिवाय और क्या कहा जासकता है ? । लेकिन फिरभी भारतभूमि के अभ्युदय की अन्तःकरण से इच्छाकरनेवाले पुरुषसिंहो की सहायता में अपना कल्याण समझकर किश्चिन्मात्र (थोडामा) जैनतत्त्व आपलोगों के मामने उपस्थित करता हूँ
जैन सिद्धान्त में चार अनुयोग ( कथन ) हैं ।
१ द्रव्यानुयोग, २ गणितानुयोग, ३ चरणकरणानुयोग, ४ धर्मकथानुयोग । इन चारों अनुयोगों की आवश्यकता प्राणियों के कल्याणार्थ तीर्थंकरोंने कही है।
(१) द्रव्यानुयोग याने द्रव्य की व्याख्या ।
द्रव्य के छ भेद हैं, जिनका जैनशास्त्र में पइ द्रव्य के नाम से व्यवहार होता है। उनके नाम ये है:-जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल |
१ जीवास्तिकाय का लक्षण यह है:“यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः” ॥१॥
कर्मों को करनेवाला, कर्म के फल को भोगनेवाला, किये हुए कर्म के अनुसार शुभाशुभ गति में जानेवाला और सम्यग्ज्ञानादि के वश से कर्मसमूह को नाशकरनेवाला आत्मा याने जीव है। जीव का इससे पृथक और दसरा कोई स्वरूप नहीं
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[३] है, इसीको जीवास्तिकाय कहते हैं। यहाँ पाँचो द्रव्यों के अस्ति .काय का नात्पर्य यह है कि अस्ति, प्रदेश (विभाग रहित वस्तु) का नाम होने से, प्रदेशों से जो कहा जाय याने व्यवहृत हो।
(२) धर्मास्तिकाय अरूपी पदार्थ है, जो जीव और पुद्गल दोनों की गति में सहायक है । जीव और पुद्गल में चलने की सामर्थ्य है लेकिन धर्मास्तिकाय की सहायता के विना फलीभन नहीं हो सकते; जैसे मत्स्य ( मछली ) में चलने की सामथ्र्य है लेकिन पानी के विना नहीं चल सकती। धर्मास्तिकाय के १स्कन्ध देशप्रदेश ये तीन भेद कहे गये हैं। . १ स्कन्ध, एक समूहात्मक पदार्थ को कहते हैं; २ देश, उसके नाना भागों को कहते हैं; ३ प्रदेश, उसको कहते हैं कि जिसमें फिर विभाग न होसके ।
(३) अधर्मास्तिकाय एक अरूपी पदार्थ है जो नीव ' और पुद्गल के स्थिर रहने के लिये सहायक है। जैसे मछली को स्थल अथवा पथिक (मुसाफर ) को वृक्ष की छाया सहायक है। यदि यह पदार्थ न हो तो जीव और पुद्गल दोनों क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रह सकते । इन दोनों पदार्थों (धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ) को लेके जैनशास्त्र में लोक और अलोक की व्यवस्था युक्तिपूर्वक कही गई है। जहाँतक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय है वहाँ ही तक लोक है, उसके आगे अलोक है। अलोक में आकाश के
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[४]
अतिरिक्त कुछ पदार्थ नहीं है । इसलिये मोक्षगामी की स्थिति लोक के अन्त में बतलाई गई है। क्योंकि पूर्वोक्त दोनों पदार्थ, लोक के आगे नहीं हैं इसीलिये अलोक में किसी की गति भी नहीं है । अत एव लोक के अन्त में ही जीव स्थिर रहता है । यदि ऐसा नहीं मानें तो कर्ममुक्त जीव की ऊर्ध्वगति होनेसे कहीं भी विश्राम न हो, बल्कि बराबर ऊपर चलाही जाय; इसीलिये जो लोग दो पदार्थों को नहीं मानते, वे मोक्ष के स्थान की व्याख्या में संदिग्ध रहते हैं और स्वर्ग के तुल्य नाशमान पदार्थ को मोक्ष मानते हैं। यदि पूर्वोक्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय दोनों पदार्थों को मानलें तो जरा भी लोक की व्यवस्था में उन्हें हानि न पहुँचे । अधर्मास्तिकाय के भी स्कन्ध, देश, प्रदेश ये भेद माने गये हैं।
(४) आकाशास्तिकाय भी एक अरूपी पदार्थ है, जो जीव और पुद्गल को अवकाश ( स्थान ) देता है। वह लोक और अलोक दोनों में है । यहां पर भी स्कन्धादि पूर्वोक्त तीनों भेद हैं।
(५) पुद्गलास्तिकाय संसार के समी रूपवान् जड़ * लोक प्रकाश के पृष्ठ ५७ में लिखा है
यावन्मानं नरक्षेत्रं तावन्मानं शिवास्पदम् । यो यत्र म्रियते तत्रैवोद्ध्वं गत्वा स सिद्ध्यति ॥ ८३ ॥ उत्पत्त्योद्ध्वं समश्रेण्या लोकान्तस्तैरलकृतः ।
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पदार्थों को कहते हैं । इसके स्कन्ध १ देश २ प्रदेश ३ और परमाणु ४ नाम से चार भेद हैं । प्रदेश और परमाणु में यह भेद है कि-जो निर्विभाग भाग, साथ में मिला रहे उसे प्रदेश मानते हैं और वही यदि जुदा हो तो परमाणु के नाम से व्यवहार में लाया जाता है।
(६) काल द्रव्य एक कल्पित पदार्थ है । जहां सूर्य तारादिगण चलस्वभाववाले हैं वहीं काल का व्यवहार है। काल दो प्रकारका है-एक उत्सर्पिणी, और दूसरा अवसर्पिणी । उत्सर्पिणी उसको कहते हैं जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये चारो की क्रम २ से वृद्धि होती है और अवमर्पिणी काल में पूर्वोक्त पदार्थों का क्रम २ हास होता है । उत्सपिणी, अवसर्पिणी काल में भी हर एक के छः छः विभाग हैं; जिनको आरा कहते हैं । अर्थात् एक कालचक्र में छः उत्सर्पिणी के क्रम से आरा हैं और अवसर्पिणी के छः व्यु. त्क्रम से ( उलटे ) आरा हैं । इन्हीं दोनों कालों में चौवीस २ तीर्थकर होते हैं और जो उत्मर्पिणी में चौवीम तीर्थंकर होते हैं, वे मुक्तजीव फिर उलटकर किसी उन्मर्पिणी या
अवसर्पिणी में नहीं आने और हर एक उत्सर्पिणी अवमा पिणी में उनसे पृथक् २ नये जीव तीर्थंकर होते हैं; ऐमा काल का क्रम अनादि से चला आता है। __ जहां मूर्यतारादिगण निश्चल हैं, वहां काल का व्यवहार
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[६]
नहीं है। इसलिये काल द्रव्य कल्पित याने (औपचारिक) द्रव्य है । अतद्भाव में तद्भाव ( अन्य में अन्यज्ञान ) उपचार कहलाता है । इसके स्कन्धादि भेद नहीं हैं। ___ इन पूर्वोक्त पइ द्रव्यों की व्याख्या को द्रव्यानुयोग कहते हैं । जिसका विस्तार सन्मतिनक, रत्नाकरावतारिका, प्रमाणमीमांसा, अनेकान्तजयपताका वगैरह ग्रन्थों में और भगवत्यादि मूत्रों में किया हुआ है। उनके देखने से स्पष्ट मालूम होगा। ___ (२ ) चरणकरणानुयोग; जिसमें चारित्र धर्म की व्याख्या अतिसूक्ष्म रीति से की है। उसे आगे चलकर दो प्रकार के धर्म के प्रकरण में कहेंगे । इसका विस्तार आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग वगैरह में किया हुआ है।
(३) गणितानुयोग का अर्थ गणित की व्याख्या है जो लोक में असङ्ख्य द्वीप और समुद्र हैं, उनकी रीति भाँति और उनके प्रमाण वगैरह का अच्छी रीति से इसमें वर्णन है । इस विषय को सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, लोकप्रकाश, क्षेत्रसमास, त्रैलोक्यदीपिका वगैरह ग्रन्थों से जिज्ञासु पुरुष देखले । . (४) धर्मकथानुयोग में भूतपूर्व महापुरुषों के चरित्र हैं । जिनके मनन करने से जीव, अत्यन्त उच्च श्रेणी पर पहुँच सकता है । वे चरित्र ज्ञाताधर्मकथा, वसुदेवहिण्डी,
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक
जैन साहित्य के विषय में पाश्चात्य विद्वान् भी मुक्तकण्ठ होकर प्रशंसा करते हैं कि जैनाचार्य निष्पक्षपाती
* As I was told that Jain Literature resembled very much that of the Bauddhas. But I was aware very soon of the fact, that Jain Literature is by far superior to that of the Buddhists, and the mora
became acquainted with Jain Religion and Jain Literature, the more I loved them,
Some publications I had first seen had given me the wrong idea, that Jain narrators were as awekward as Buddhist ones. But I was soon aware of the fact that I was completely mistaken with this view, and that, on the contrary it is a merit merely of Jain auothers to have cultivated, in Sanskrit as well, as in Prakrit, in prose and in verse an easy and natural style which makes their tales delightful to the reader, whereas the prose of am, gtry and other brahmanical authors of a later time, is too artificial in the outer form to give a real satisfaction on the contents of their productions.
By Dr. JOHANNES HERTEL.
DOEBELS, GERMAS EMPIRE.
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[<]
और यथार्थ लेखक थे । इस प्रशंसा का कारण यह है कि जो निःस्पृहता से काम किया जाता है वही सर्वोत्तम होता है; यह बात सब को विदित ही है । जो जैन महामुनि आज भी अपना आचार, विचार; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार रख सके हैं उसका मूल कारण जिनदेव का मोक्षपरक उपदेश ही है । सभी जिनदेव | सभी जिनदेव धर्मशूर क्षत्रियकुल ही में उत्पन्न हुए हैं क्योंकि क्षत्रिय सब कहीं शूरता (वीरता) करते हैं; कारण यह है कि उनका वह वीर्य, उसी प्रकार का है । इसलिये जैनधर्म में क्षत्रियकुल सर्वोत्तम बताया गया है। प्राय: करके जैनधर्म के पालक और उपदेशक बहुत से क्षत्रिय ही थे । ।
क्षत्रिय केवल अपने पराक्रम के सिवाय दूसरे की कभी दरकार नहीं रखते हैं । शूरता के बिना देश की उन्नति और जाति की उन्नति, तथा धर्मोन्नति आदि कोई भी कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि शास्त्रकारों ने स्वयं कहा है कि " जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा " अर्थात् जो कर्म में शूर हैं वे ही धर्म में भी शूर हैं । किन्तु धर्माधिकार में ब्राह्मण, वैश्य,
*स्थानाङ्गसूत्र के पत्र २७६ में लिखा है
चत्तारि सूरा पण्णत्ता । तं जहा - खन्तिसूरे, तवसूरे, दाणसूरे, जुद्धसूरे । अर्थात् शूर चार प्रकार के होते हैं-१ क्षमाशूर,
२ तपशूर, ३ दानशूर तथा ४ युद्धशूर ।
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[९] शूद्र आदि सब की समान सत्ता है और उपदेशकभी हो सकते हैं। आत्मसत्ता के प्रकट होनेपर चारों वर्गों की समान सत्ता मानी गई है, क्योंकि किसी प्रकार का पक्षपात जैनशास्त्र में नहीं है । केवल क्षत्रियकुल में तीर्थंकरों के होने से वह कुल प्रतापी माना गया है, यदि क्षत्रिय भी धर्मविरुद्ध आचरण करेगा तो जरूर अधोगति में जायगा।
बहुत से मनुष्यों की ऐसी समझ है कि जैनधर्मी मनुष्यों ने 'अहिंसा परमो धर्मः' की व्याख्या को विशेष बढ़ाकर युद्ध आदि कार्य में हमारे देश की अत्यन्त अवनति कर डाली है । इसबात का हम उत्तर आगे चल के अहिंसाप्रक· रणस्थ राजा भरत के दृष्टान्त में देंगे।
पूर्वोक्त चारो अनुयोगों में संपूर्ण जैनधर्म का तत्त्व परिपूर्ण है। इन्हीं अनुयोगों की सिद्धि के लिये 'प्रमाण'
और 'नय' दो पदार्थ माने गये हैं । क्योंकि प्रमेय (ज्ञेय) वस्तु की सिद्धि, विना प्रमाणतथा नय के नहीं हो सकती इसी से कहा हुआ है कि " प्रमाणनयैरधिगमः "।" प्रमाण सर्वांश का और नय एकांश का ग्राहक है । प्रमाण
* प्रमाण की व्याख्या इस रीति से है-'प्रकर्षेण संशयाद्यभावस्वभावेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तु येन तत् प्रमाणम्' अर्थान् संशय, विपर्यय (वैपरीत्य ) आदि से रहित वस्तु का जिससे निश्चय हो उसे प्रमाण कहते हैं ।
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[१०] के दो प्रकार हैं-एक प्रत्यक्ष, दुसरा परोक्ष । प्रत्यक्ष में भी दो भेद हैं-एक सांव्यवहारिक और दूसरा पारमार्थिक । उसमें भी सांव्यवहारिक, इन्द्रियनिमित्तक और अनिन्द्रियनिमित्तक भेद से दो प्रकार का होता है । स्पर्श, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, इन पॉचों इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान को इन्द्रियनिमित्तक प्रत्यक्ष कहते हैं । 'मन' जिसकी जैनशास्त्रकारोंने 'नोइ. न्द्रिय' एमी संज्ञा रक्खी है उससे उत्पन्न हुए ज्ञान को अनिन्द्रियनिमित्तक प्रत्यक्ष, या मनोनिमित्तक प्रत्यक्ष कहते हैं ।
बौद्धों ने नेत्र और कर्ण को छोडकर बाकी इन्द्रियों को प्राप्यकारी माना है और नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक और साख्यवादी सभी इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं, किन्तु हमार जैनशास्त्र में नेत्र इन्द्रिय को छोडकर अन्य सभी इन्द्रियों को प्राप्यकारी माना है। इस बात का वर्णन रत्नाकरावतारिका वगैरह ग्रन्थों में अतिविस्तारपूर्वक युक्तियुक्त किया हुआ है, परन्तु यहां थोड़े श्लोकों की व्याख्या करके जैनदर्शन के मन्तव्य का दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है।
* रत्नाकरावतारिका के पृष्ठ ९१ में लिखा हुआ है:
चक्षुरप्राप्यधीकृत व्यवधिमतोऽपि प्रकाशकं यस्मान् ! अन्तःकरणं यद्वद्व्यतिरेके स्यात् पुना रसना ॥ ६८ ॥ अथ द्रुमादिव्यवधानभानः प्रकाशकत्वं ददृशे न दृष्टौ ।
ततोऽप्ययं हेतुरसिद्धतायां धौरेयभावं बिभराम्बभूव ॥६९।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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[ ११ ]
अन्तःकरण की तरह व्यवहित ( ढके हुए) पदार्थ के प्रकाशक होने से चक्षुरिन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानाजाता है और जो अप्राप्यकारी नहीं है वह व्यवहित का प्रकाशक भी नहीं है, जैसे जिह्वेन्द्रिय । यहां पर यदि ऐसी शङ्का उत्थित हो कि चक्षुरिन्द्रिय व्यवहित पदार्थ की प्रकाशक कैसे है ? क्योंकि वृक्षादि से व्यवहित पदार्थ को तो प्रकाश नहीं करती, इसलिये यह सिद्धान्त ठीक नहीं है । इस पर जैनशास्त्रकारों का यह समाधान है कि काँच, विमल जल और स्फटिकरत्न की दीवाल के व्यवधान रहनेपर भी चक्षुरिन्द्रिय से वस्तु का ज्ञान अवश्य होता है; परन्तु योग्यता न होने से
एतन्न युक्तं शतकोटिकाचस्वच्छोदकस्फाटिकभित्तिमुख्यैः । पदार्थ पुञ्जे व्यवधानभाजि संजायते किं नयनान्न संवित्! ॥ ७० ॥ और पृष्ठ ९२ में:
-
तस्थौ स्थेमा तदस्मिन् व्यवधिमदमुना प्रेक्ष्यते येन सर्व तत्सिद्धा नेत्रबुद्धिर्व्यवधिपरिगतस्यापि भावस्य सम्यक् । कुड्यावष्टब्धबुद्धिर्भवति किमु न चेनेदृशी योग्यताऽस्य
प्राप्तस्यापि प्रकाशे प्रभवति न कथं लोचनाद्गन्धबुद्धिः १ ।। ७५ ।। किंवा न प्रतिभासते शशधरे कर्मापि तद्रूपवत् ?
दूराद्विलसत् तदस्य हृदये लक्ष्येत किं लाञ्छनम् ? । तस्माच्चक्षुषि योग्यतैव शरणं साक्षी च नः प्रत्यय
स्तन् तर्कप्रगुण ! प्रतीहि नयनेष्वप्राप्यधीकर्तृताम् ॥ ७६ ॥
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[ १२ ]
वृक्षादि से व्यवहित पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं होता । यदि योग्यता को स्वीकार न करें तो चक्षु के प्राप्यकारी माननेवालों को, चक्षु से गन्ध का ज्ञान क्यों नहीं होता ? एवं चन्द्र के भीतर उसके रूप की तरह उसकी क्रिया का भी चक्षुरिन्द्रियद्वारा प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता ? | यदि उसके प्रत्यक्ष न होने का कारण दूरता कहियेगा, तो फिर उसके लाञ्छन [ कलङ्क ] का भी प्रत्यक्ष न होना चाहिये | इसलिये योग्यता छोड़कर दूसरा कोई कारण नहीं माना जा सकता ।
यह सांव्यहारिक प्रत्यक्ष, जो बाह्येन्द्रियों की सहायता लेता है, अपारमार्थिक प्रत्यक्ष, अथवा पारमार्थिक परोक्ष माना जाता है । उमास्वाति वाचक ने 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ' में सीरीति से विस्तारपूर्वक वर्णन किया है ।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से भिन्न, याने इन्द्रिय वगैरह की सहायता के विना, केवल आत्माद्वारा उत्पन्न होनेवाला ज्ञान, पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहलाता है । उसके दो भेद एक विकल और दूसरा सकल । विकल के भी अवधि और मन:पर्यय के नाम से दो भेद हैं ।
+
*
पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, अन्धकार और छाया आदि व्यवहित रूपी द्रव्यों को भी प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञान, अवधिज्ञान कहलाता है ।
+ मनुष्यक्षेत्र में रहनेवाले सभी मनवाले जीवों के मन
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[ १३ ) केवलज्ञान को सकल कहते हैं।
परोक्ष ज्ञान में पांच भेद माने जाते हैं । १ प्रत्यभिज्ञान, २ स्मरण, ३ तर्क, ४ अनुमान, ५ आगम । इसमें प्रत्यभिज्ञान, स्मरण, तर्क इन तीनों को कोई २ प्रमाण में दाखिल नहीं करते लेकिन हमारे जैनशास्त्रकारों ने इसपर प्रबल युक्ति दिखाकर अति उत्तम रीति से विवेचना की है। किन्तु यहाँ समय के अति संकुचित होने से हम उसे कह नहीं सकते।
उपमान प्रमाण का अन्तर्भाव, प्रत्यभिज्ञान में किया . गया है।
नय वह पदार्थ है, जिसका संक्षिप्त लक्षण हम ऊपर कह 'चुके हैं; उसका शास्त्रकारों ने इसरीति से लक्षण किया है:
'नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशः तदितरांशोदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः'
रूप द्रव्य के पर्यायों को प्रत्यक्ष करनेवाले ज्ञान को मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं।
भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल में होनेवाले तीनों लोक के पदार्थों का प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञान, केवलज्ञान कहा जाना है।
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[१४] अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणों से निश्चित किये अर्थ के अंश अथवा बहुत से अंशों को ग्रहण करे और बाकी बचे अंशों में उदासीन रहे, याने इतर का निषेध न करे, ऐमा, वक्ता का अभिप्रायविशेष, ‘नय' कहलाता है । यदि इतर अंश का उदासीन न होकर निषेध ही करे, तो नयाभाम कहा जायगा।
नय के भेद-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसुत्र, शब्द, ममभिरूढ़ तथा एवंभूत रूप से सात प्रकार के हैं।
उनमें १ नैगमनय वह कहलाता है, जो द्रव्य और पर्याय इन दोनों को सामान्य-विशेष-युक्त मानता हो; क्योंकि वह कहता है कि सामान्य विना विशेष नहीं होता और विशेष विना सामान्य रह नहीं सकता ।
२ संग्रहनय, हर एक वस्तु को सामान्यात्मक ही मानता है। क्योंकि वह कहता है कि सामान्य से भिन्न विशेष कोई पदार्थ ही नहीं है।
३ व्यवहारनय, हर एक वस्तु को विशेषात्मक ही मानता है।
४ ऋजुसूत्र, अतीत और अनागत को नहीं मानता, केवल कार्यकर्ता वर्तमान ही को मानता है । __५ शन्दनय, अनेक पर्यायों (शब्दान्तर ) से एक ही अर्थ का ग्रहण करता है।
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। १५ ] ६ समभिरूड़नय, पर्याय के भेद से अर्थ को भी भिन्न कहता है।
७ एवंभूतनय, स्वकीय कार्य करनेवाली वस्तु ही को वस्तु मानता है। ___इन सातो नयों का द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय में समावेश होता है । ये पूर्वोक्त नय परस्पर विरुद्ध रहनेपर भी मिलकर ही जैनदर्शन का सेवन करते हैं। इसमें दृष्टान्त यह है कि जैसे संग्राम की युक्ति से पराजित समग्र सामन्त राजा परस्पर विरुद्ध रहनेपर भी एकत्रित होकर चक्रवर्ती राजा की सेवा करते हैं।
इनका विस्तारपूर्वक वर्णन नयचक्रसार और स्याद्वादरत्नाकर के सातवें परिच्छेद आदि में है; जिज्ञासु को यहाँ देखलेना चाहिये।
पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप को पूर्वोक्त प्रमाण और नय द्वारा जाननेवाला पुरुष, जैनशास्त्र में श्रद्धावान् माना
* जैनस्तोत्रसंग्रह प्रथम भाग के ७० पृष्ठ में लिखा है ।
सर्वे नया अपि विरोधभृतो मिथस्ते __ संभूय साधुसमयं भगवन् ! भजन्ते । भूपा इव प्रतिभटा भुवि सार्वभौम
पादाम्बुजं प्रधनयुक्तिपराजिता द्राक् ॥ २२ ॥
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। १६ गया है। श्रद्धा, रुचि या सम्यक्त्व ये पर्यायवाची शब्द हैं। सम्यक्त्ववान् जीव धर्म का अधिकारी होता है। धर्म के दो विभाग हैं; एक साधुधर्म और दूसरा गृहस्थधर्म ।
साधुधर्म दश प्रकार का माना गया है:"खन्ति, मद्दव, अजव, मुत्ति, तव संजमे अ बोद्धवे। · सच्चं, सोअं, अकिंचणं च बम्भं च जइधम्मो”
क्षान्ति ( क्रोधाभाव ), मार्दव ( मानत्याग ), आर्जव ( निष्कपटता ), मुक्ति (लोभाभाव ), तप ( इच्छाऽनुरोध), संयम ( इन्द्रियादिनिग्रह ), सत्य (सत्यबोलना ), शौच ( सब जीवों के सुखानुकूल बर्तना, अथवा अदत्त पदार्थ का ग्रहण नहीं करना), अकिञ्चन ( सब परिग्रह का त्याग अर्थान् ममता से निवृत्ति),ब्रह्म (सर्वथा ब्रह्मचर्य का पालन) ये दश प्रकार के साधुधर्म हैं ।
जैनसाधु लोग दशप्रकार के यतिधर्म पालने के लिये अर्हन् , सिद्ध, साधु, देव और आत्मा की साक्षी देकर जनसमुदाय के बीच में प्रतिज्ञापूर्वक पञ्चमहाव्रत को ग्रहण करते हैं, कि 'हम साधुधर्म अपने आत्मा के कल्याण के लिये मन, वचन और काय से पालन करेंगे'। जिन पञ्चमहाव्रतों को जैनशास्त्र में मूलगुण बताया है, उनकी व्याख्या क्रम से आगे की जाती है:
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[१७ ] १ अहिंसाव्रत उसे कहते हैं, जिसमें प्रमाद अर्थात् अज्ञान, संशय, विपर्यय, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, योगदुष्प्रणिधान, धर्मानादर से, त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा [प्राणवियोग] नहीं की जाती है।
२ सूनृत [सत्य व्रत, प्रिय हितकारक वाक्य को कहते हैं; न कि जिससे किसी जीवपर आघात पहुँचे, या कटु हो ।
३ अस्तेय व्रत वह है, जिसमें किसी प्रकार की चोरी न हो; क्योंकि मनुष्यों के बाह्य प्राण धनही हैं उसके हरण करने से मनुष्य के प्राणही हत होते हैं ।
४ ब्रह्मचर्यव्रत-देव, मनुष्य और तिर्यश्च से उत्पन्न होनेवाले १८ प्रकार के कामों से मन, वचन तथा काय से 'निवृत्त होना और करनेवालों को सहायता नहीं देना, यह कहलाता है। ___५ अपरिग्रहव्रत, सर्व पदार्थों में ममत्व बुद्धि के त्याग को कहते हैं; क्योंकि असत् पदार्थों में भी मोह होने से चित्तभ्रम होता है।
मूलगुण के रक्षण के लिये उत्तरगुण [ अष्टप्रवचनमाता के नाम से व्यवहृत ] पाँच समिति और तीन गुप्ति कहलाते हैं । जिनके नाम ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति,
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[ १८ ] आदाननिक्षेपसमिति, पारिष्ठापनिकासमिति और मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति हैं ।
ईर्यासमिति, बराबर युगमात्र [ साढ़े तीन हाथ ] दृष्टी देकर उपयोगपूर्वक चलने को कहते हैं । समिति शब्द का अर्थ सम्यक् प्रकार की चेष्टा है ।
भाषासमिति, उपयोगपूर्वक बोलने को कहते हैं ।
एषणासमिति, बेयालीस दोषरहित आहार [ भोजन] के ग्रहण करने को कहते हैं ।
आदाननिक्षेपसमिति वह है, जिसमें संयमधर्म पालने में उपयोगी चीजों को देखकर और साफकरके (प्रमार्जन करके ) ग्रहण या स्थापन किया जाता हो। ___ पारिष्ठापनिकासमिति उसे कहते हैं जहाँ किसी की हानि न हो ऐसे निर्जीवस्थल में मलमूत्रादि त्याज्य चीजें उपयोग ( यत्न ) पूर्वक छोड़ी जावें । । ____मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति-क्रम से मन, वचन
और शरीर की रक्षा को कहते हैं। गुप्ति शब्द का अर्थ रक्षा करना, अर्थात् अशुभप्रवृति से हटना है ।
पूर्वोक्त पाँच समिति और तीन गुप्ति के विना पश्च महाव्रत की रक्षा नहीं हो सकती है और पश्च महाव्रत के पालने
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है
[ १९ ] के बिना दश प्रकार के यति [ साधु ] धर्म का निभाना महा दुर्घट है।
गृहस्थ धर्म के द्वादश प्रकार ये हैं:पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, और चार शिक्षाव्रत । इन बारहों का मूल सम्यक्त्व है । पाँच अणुव्रत ये हैं;
प्राणातिपातविरमण व्रत १, अर्थात् प्राणातिपात (जीवहिंसन ) से स्थूलरीत्या विराम (निवृत्ति ) होना । इसी रीति से मृषावाद ( मिथ्याभाषण ), अदत्तादान [ नही दिये हुए पदार्थों का लेना ], मैथुन (परस्त्रीसंभोग ) और परिग्रह [ विशेष वस्तुओं का संग्रह ] से स्थूलरीत्या निवृत्ति होने को, क्रम से मृषावादविरमण व्रत २, अदत्तादानविरमण व्रत ३, मैथुनविरमण व्रत ४ और परिग्रहविरमण व्रत ५ कहते हैं। ___ इन पाँच मूलव्रतों की रक्षा करने के लिये तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत माने गये हैं।
उन गुणवतों और शिक्षाव्रतों के नाम क्रम से ये हैं:दिगवत १ [ अपने स्वार्थ के लिये दशो दिशाओं में जाने आने के किये हुए नियम की सीमा को उल्लङ्घन नहीं करना ]; भोगोपभोगनियम २ [ भोग जो एक बार उपयोग में लाया
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[२०]
जा सके, जैसे भोजन; उपभोग जो वारंवार काम में लाया जाय, जैसे वस्त्रादि । इन दोनों का नियम ]; अनर्थदण्डनिषेध ३ [ किसी भी निरर्थक क्रिया करने का निषेध ] ये गुणत्रत हैं । और सामायिक १ [ रागद्वेष रहित हो, सब जीवों पर समभाव होकर ४८ मिनट पर्यन्त एकान्त में बैठकर आत्मचिन्तन करना ]; देशावकाशिक २ [ पूर्वोक्त दिग्विषय में कहे हुए नियम में और भी संक्षेप करना ]; पौषध ३ [ एक दिन अथवा अहोरात्र [ आठ पहर ] साधु की तरह वृत्ति धारण करना ]; अतिथि संविभाग ४ [ मुनियों को दिये विना भोजन नहीं करना ] ये शिक्षाव्रत हैं । इनका विशेष वर्णन जिज्ञासुओं को उपासकदशाङ्गसूत्र और योगशास्त्रादि ग्रन्थों में देख लेना चाहिये ।
ऊपर के दोनों धर्मों का सेवन कर्मक्षय करने के लिये किया जाता है ||
जीव या आत्मा का मूल स्वभाव, स्वच्छ निर्मल अथवा सच्चिदानन्दमय है, किन्तु कर्मरूप पौगलिक बोझा चढ़ने से उसका मूलस्वरूप आच्छन्न अर्थात् ढक जाता है । जिस समय पौगलिक बोझा निर्मूल हो जाता है उस समय आत्मा, परमात्मा की उच्चदशा को प्राप्त करता है और लोकान्त में जाकर स्वसंवेद्य [ उसीके जानने के योग्य ] सुख का अनुमन करता है । लोक और अलोक की व्यवस्था हम पहि-
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[२१] लेही कह चुके हैं । जीव और पुद्गल का संबन्ध किस रीति से हुआ इसका उत्तर जैनशास्त्रकार अनादि बतलाते हैं । वे अनादि कर्म, जीव के साथ हमेशा के लिये संबन्ध नहीं रख सकते, लेकिन उनका परावर्तन [ लौट पौट ] आत्मप्रदेश के साथ हुआ करता है । कर्मों को जीव किस तरह ग्रहण करता है । और किस रीति उनसे मुक्त होता है, इसका विस्तार कर्मग्रन्थों में स्पष्ट रीति से लिखा हुआ है।
मूलकर्म एक जीव के ऊपर आठ प्रकार के होते हैं उनके नामः-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीयकर्म, मोहनीयकर्म, आयुष्कर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, अन्तरायकर्म ।
किन्तु इन कर्मों के उत्तर भेद तो १५८ कहे हुए हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के उत्तर पाँच भेद हैं-मतिज्ञाना
...--------...--.-
-
* यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि यदि कर्म का जीव के साथ अनादि सम्बन्ध है तो वह किस रीति से मुक्त हो सकता है; इसपर जैनशास्त्रकार यह उत्तर देते हैं कि जैसे स्वर्ण सोना]
और मृत्तिका का अनादि संबन्ध रहनेपर मी यत्नद्वारा मुफ हो सकता है वैसेही शुभध्यानादि प्रयोग से आत्मा और कर्म का संबन्ध भी मुक्त होता है।
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[ २२ ] वरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्यवज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय । इन पूर्वोक्त पाँचो आवरणों के दूर होने से जैनशास्त्रकार पाँच ज्ञानों की प्राप्ति बताते हैं । उनके नाम - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान, हैं । वास्तविक में तो केवलज्ञान के, बाकी चारों मतिज्ञानादिक अंश हैं । जैसे सूर्यपर जिस २ तरह मेघ का आवरण बढ़ता जाता है, उसी उसी तरह सूर्य का प्रकाश कम होता जाता है, । वैसेही ज्ञान भी, न्यूनाधिक आवरण लगने से न्यूनाधिक प्रकाशित होता है, इसलिये मतिज्ञानादि संज्ञा को प्राप्त होता है । इस विषय में कितनेक आचार्यों का भिन्न भिन्न मत है । वे लोग कहते हैं कि जैसे ग्रह, नक्षत्र, चन्द्र वगैरह सूर्य के उदय होने के समय विद्यमान तो अवश्य रहते हैं किन्तु उनका उसके तेज के समीप प्रत्यक्ष नहीं होता, वैसेही केवलज्ञान जब उदय होता है तब मतिज्ञानादिक ढक जाते हैं, किन्तु उनकी सत्ता तो अवश्य ही रहती है । पूर्व पाँचो ज्ञानों में तारतम्य, आवरण के क्षयोपशम को लेकर माना गया है । हमलोग साक्षात् अनुभव करते हैं कि वादी और प्रतिवादि के संवाद में वादी पदार्थ को अच्छी तरह जानते हुए भी बहुधा उस समय भूल जाता है; इसमें आवरण के सिवाय कोई दूसरा और कारण नहीं है ।
।
इसीरीति से दर्शनावरणीय कर्म के भी उत्तर ९ भेद
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. [२३ ] हैं । समय के अत्यन्त कम होने से यहाँ उनके नाममात्र कहकर सन्तोष करना पड़ता है। ___१ चक्षुर्दर्शनावरणीय, २ अचक्षुर्दर्शनावरणीय,३ अवधिदर्शनावरणीय, ४ केवलदर्शनावरणीय, ५ निद्रा, ६ निद्रानिद्रा, ७ प्रचला, ८ प्रचलाप्रचला और ९ स्त्यानद्धिं ये उनके नाम हैं* ॥ _ वेदनीयकर्म के शातावेदनीय, अशातावेदनीय दो
चौथा मोहनीयकर्म है-जिसके, चार प्रकार के क्रोध, चार प्रकार के मान, चार प्रकार की माया और चार प्रकार के लोभ; एवं हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुर्गच्छा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, ये सब मिल के अहाईस भेद हैं। * लोकप्रकाश के ५८४ पृष्ठ में लिखा हैसुखप्रबोधा निद्रा स्याद् सा च दुःखप्रबोधिका । निद्रानिद्रा प्रचला च स्थितस्योर्ध्वस्थितस्य वा ॥ १ ॥ गच्छतोऽपि जनस्य स्यात् प्रचलाप्रचलाऽभिधा । स्त्यानर्द्धिासुदेवार्द्धबलाऽहश्चिन्तितार्थकृत् ॥२॥ $ मोहयति विवेकविकलं करोति प्राणिनमिति मोहः
( मोहनीयम ).
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[ २४ ] पाँचवां आयुष्कर्म है । इसके देवायु, मनुष्यायु, नियश्चायु, नरकायु के नाम से चार मेद हैं।
छठा नामकर्म है, जिसके उदय से जीव, गति और जाति आदि पर्यायों का अनुभव करता है । इसके १०३ भेद हैं, किन्तु थोड़े समय में उनका निरूपण नहीं किया जासकता।
सातवाँ गोत्रकर्म वह है, जिसके उदय होने से नीच, उच्च गोत्र की प्राप्ति होती है ।
आठवाँ अन्तराय कर्म है; जिसके उदय होने पर जीवों के दानादि करने में अन्तराय [ विन ] होता है। इसके दानान्तराय १ लाभान्तराय २ भोगान्तराय ३ उपभोगान्तराय ४ वीर्यान्तराय ५ रूप से पाँच भेद हैं।
राग और द्वेष की परिणति से आठ कर्मों का बन्धन होता है। हमने जिनको कर्म के नाम से कहा है, इनको अन्यदर्शनकार-अदृष्ट, प्रारब्ध, संचित, दैव, प्रकृति, तथा माया के नामों से कहते हैं ।
किन्तु यह बात प्रसिद्ध है कि ऐसे गहन पदार्थों की विवेचना में जैनशास्त्रकार परम उच्चकोटी को पहुँचे हैं।
कर्म का पर्दा जबतक आत्मापर रहता है तबतक वह संसारी अथवा चार गति में फिरनेवाला माना जाता है
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[२५] और उस पर्दा के सर्वथा दूर होनेपर मोक्षगामी अथवा सिद्ध कहा जाता है । सिद्धजीव अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र और अनन्तवीर्यादि से युक्त हो जाता है । यहांपर यह शङ्का उठ सकती है कि ज्ञान तो अरूपी पदार्थ है उसका अनन्त व्यवहार कैसे होसकता है । इसका उत्तर यह है कि-ज्ञेय पदार्थ के अनन्त होने से तद्विषयक ज्ञान को भी अनन्त मानने में किसी प्रकार की हानि नहीं होसकती । एवंरीत्या दर्शन, चारित्र और वीर्यादि में भी समझलेना । जैनशास्त्रकार मोक्ष में संसारी सुख से विलक्षण सुख मानते हैं । जिस तरह कोई पुरुष-आधि, व्याधि, उपाधि • ग्रस्त होकर दुःख का अनुभव करता है और उससे मुक्त होनेपर सुख का अनुभव करता है; उसीतरह आत्मा के ऊपर जहाँतक कर्म का पर्दा पड़ा हुआ है वहाँतक सांसारिक सुख और दुःख का अनुभव करता है और कर्म का पर्दा दूर होनेपर वास्तविक, निर्बाध, अनुपमेय, स्वसंवेद्य सुख का अनुभव करता है । साङ्ख्य दर्शनकार प्रकृति के वियोग में मोक्ष मानते हैं और नैयायिकों ने दुःखध्वंसरूपही मोक्ष माना है, तथा वेदान्ती [ अध्यास से मुक्त ] ब्रह्मही को मुक्ति का स्वरूप कहते हैं, एवं बौद्ध पश्चस्कन्धरूप दुःख, रागादिगण और क्षणिकवासनास्वरूप मार्ग के निरोध को मोक्ष मानते हैं।
मुक्ति पदार्थ को आस्तिकमात्र मानते हैं, परश्च जैने
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[ २६ ] तर मतों में एक संप्रदाय में भी अनेक स्वरूप मुक्ति के माने गये हैं। किन्तु जैनमत में अनेक संप्रदाय रहनेपर भी मुक्ति के स्वरूप में भेद नहीं है । मुक्ति का स्वरूप आगम प्रमाण से सिद्ध होता है। अन्त में जैनाचार्यों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि मोक्ष के साथ उपमादेनेलायक पदार्थ न मिलने से कल्पित दृष्टान्त देकर सत्य वस्तु को सत्याभास बनाना ठीक नहीं है, क्योंकि इस संसार में बहुतसी ऐसी वस्तुएं हैं जो देखी और अनुभव की गयी हैं लेकिन उनकी उपमा किसी के साथ नहीं दी जा सकती; तो मोक्ष यदि अनुपमेय हो तो आश्चर्य ही क्या है ?। इसमें दृष्टान्त यह है-जैसे घृत [घी पदार्थ को सभी-मूर्ख से लेकर पण्डित तकजानते हैं, किन्तु उसका स्वाद क्या है, यह यदि उनसे पूछा जाय तो कुछ नहीं बतला सकेंगे और उसके स्वाद के साथ तुलना करने के लिये कोई दृष्टान्त भी नहीं दे सकेंगे, तो फिर अरूपी और अप्रत्यक्ष पदार्थ की बातही क्या है ?
जैनदर्शन में साधुधर्म और गृहस्थधर्म दोनों मोक्ष के लिये माने गये हैं। यदि मोक्ष की सामग्री न बन सकेगी, तो पुण्य के उदय होने से देवगति प्राप्त होगी । देवताओं के चार विभाग किये गये हैं । जिनमें प्रथम भवनपति, दूसरा व्यन्तर, तीसरा ज्योतिष्क और चौथा वैमानिक बताया गया है । जैसी शुभ क्रिया होती है वैसी ही गति भी होती हैक्योंकि कहा हुआ है "या मतिः सा गतिः" ।
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[ २७ ] यदि कदाचित् स्वर्ग जाने के योग्य पुण्य का बन्धन न हुआ तो जीव मनुष्यगति को प्राप्त होता है और मनुष्य पैंतालीस लाख योजन प्रमाण क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं, उसे जैनशास्त्रकार ढाई द्वीप मानते हैं। उसमें भी यदि उत्पन्न न हुआ तो तिर्यश्च पञ्चन्द्रिय की गति मिलती है । उसके बीस भेद बताये गये हैं। वे पञ्चेन्द्रिय तियश्च, जैनशास्त्रानुसार तिरछे लोक के असख्य द्वीप और समुद्रों में उत्पन्न होते हैं । यदि पञ्चेन्द्रिय की भी गति न हुई तो समझना चाहिये कि पुण्य के बदले प्रमादाचरण से पापों का बन्धन किया गया है। उस पाप के कारण से जीव को चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय की गति मिलती है । वे प्रायः ऊँचे, नीचे अथवा तिरछे लोकों में उत्पन्न होते हैं । उमसे भी अधिक जब पाप का बन्धन होता है तो नरकगति में नीव को जाना पड़ता है। नरक के सात भेद हैं; उनमें उत्तरोत्तर अधिक दुःख भोगना पड़ता है । उसके यहाँ प्रतिपादन करने में बहुत तूल होगा, इसलिये जिज्ञासुओं को चाहिये कि लोकप्रकाश और सूत्रकृताङ्ग में देख लेवें । __कर्म के बन्धन में चार कारण-मिथ्यात्व, प्रमाद, अविरति और योगनाम से कहे गये हैं । असत्य को सत्य ओर सत्य को असत्य समझना मिथ्यात्व कहलाता है । नशे की चीजें पीना और विषय का सेवन कषाय [क्रोधादि] करना, निद्रा और विकथा [कुत्सित कथा ] आदि का करना यही
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[ २८ ]
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प्रमाद है । धर्मशास्त्र की मर्यादा से रहित बर्ताव करना अविरति कहलाती है । चार प्रकार मन की चार प्रकार वचन की और सात प्रकार काया की शुभाशुभरूप प्रवृत्ति से, योग के पन्द्रह प्रकार माने गये हैं ।
ये पूर्वोक्त चार प्रकार के कारण से कर्म, आत्मा के साथ संबद्ध होता है । कर्मबन्धन के चारो कारण से दूर रहने के लिये अर्हनदेव ने प्रवृत्ति और निवृत्ति दो मार्ग बताये हैं । उन्होंने प्रवृत्तिमार्ग को निवृत्तिमार्ग का कारण मानकर शुद्ध प्रवृत्तिमार्ग का सेवन जीव को किस प्रकार करना चाहिये इस बात को केवलज्ञान द्वारा जानकर; जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष का स्वरूप बताकर मोक्षरूप महासुन्दर महलपर चढ़ने के लिये १४ सोपान [ सीढ़ी ] की श्रेणी [ परम्परा ] बताई हैं | | दस सीढ़ी पर्यन्त शुद्ध प्रवृत्ति की आवश्यकता
६
* योगशास्त्र के विवरण के ११४ पृष्ठ में ये सब लिखे हैं:मनोवचनकायानां यत्स्यात् कर्म स आश्रवः' । ' सर्वेषामाश्रवाणां यो रोधहेतुः स संवरः ' । ' कर्मणां भवहेतूनां जरणादिह निर्जरा '' सकषायतया जीवः कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान् यदादत्ते स बन्धः स्यात् ॥
"
6
1 १ मिध्यात्व २ सास्वादन ३ मिश्र ४ अविरतिसम्यग् - दृष्टि ५ देशविरति ६ प्रमत्त ७ अप्रमत्त ८ निवृत्तिबादर ९ अनि
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[ २९ ]
1
है, उसके बाद निवृत्ति मार्ग की प्राप्ति कही गई है । पूर्वोक्त नव तत्त्वों के शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला चौथी सीढ़ी पर है; उसको जैनशास्त्रकार सम्यग्दृष्टि जीव कहते हैं । उसके आगे बढ़ने पर त्यागवृत्ति अंशतः जब आती है तो वह गृहस्थ धर्मवान् श्रावक कहलाता है और उससे आगे बढ़ा हुआ सर्वांशत्यागी जैन मुनि माना जाता है । उससे भी अधिक २ गुण बढ़ने से दशवीं सीढ़ी में जानेपर समस्त क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का नाश होता है; एवं उसके आगे बढ़ा हुआ योगीन्द्र और उसके आगे केवली माना जाता है ।
केवली दो प्रकार के होते हैं; एक सामान्य केवली और दूसरा तीर्थकर । इन दोनों में ज्ञानादि अन्तरंग लक्ष्मी बराबर रहने पर भी जिन्होंने जन्मान्तर में बड़े पुण्य को उपार्जन [ संचय ] किया हो, वही 'तीर्थंकरनामकर्म रूप पुण्यसंचय होने से तीर्थकर कहलाते हैं और वे राग, द्वेष आदि अठारह * दूषणों से रहित होते हैं ।
वृत्तिवादर १० सूक्ष्मसंपराय ११ प्रशान्तमोह १२ क्षीणमोह १३ सयोगी १४ अयोगी नामक चौदह सीढ़ी अर्थात् १४ गुणस्थानक हैं I
* अभिधानचिन्तामणि देवाधिदेवकाण्ड के १३ में पृष्ठ में लिखा है:
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[ ३० ] पूर्वोक्त आठ कर्मों का केवलज्ञानोत्पत्ति के समय में क्षय होता है; किन्तु नामकर्म, आयुष्ककर्म, वेदनीयकर्म, गोत्रकम बाकी रहते हैं, उनकी स्थिति जबतक है तबतक शरीरधारी होने से आहार लेना, विहार करना, उपदेश देना आदि क्रिया, अवशिष्ट कर्म के क्षय [नाश ] के वास्ते ही की जाती हैं। ___ अग्लानि से भाषावर्गणा [ शब्दसमूह ] के पुद्गल के क्षय करने के निमित्त तीर्थकर उपदेश करते हैं और उस उपदेश पर गणधरलोग द्वादश अङ्ग [द्वादशाङ्ग बनाते हैं।
इस समय में उन अङ्गों में से ग्यारह अङ्ग तो विद्यमान हैं किन्तु बारहवाँ दृष्टिवादनामक अङ्ग अब नहीं मिलता। ग्यारह अङ्ग अब जो विद्यमान हैं उनको हमलोग मानते हैं, किन्तु दिगम्बरों ने इन मूल सूत्रों को विच्छिन्न मानकर
अन्तराया दानलाभवीर्यभोगोपभोगगाः । हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥ ७१ ॥ कामो मिध्यात्वमज्ञानं निद्रा चाविरतिस्तथा ।
रागो द्वेषश्च नो दोपास्तेपामष्टादशाप्यमी ॥ ७२ ॥ + आचाराङ्ग, २ सूत्रकृताङ्ग, ३ स्थानाङ्ग, ४ समवायाङ्ग, ५ भगवतीसूत्र, ६ ज्ञाताधर्मकथा, ७ उपासकदशाङ्ग, ८ अन्तकद्दशाङ्ग, ९ अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग, १० प्रभव्याकरण, ११
विपाकश्रुत, १२ दृष्टिवाद, ये बारह अङ्ग हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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[३१] दूसरे ही शास्त्र माने हैं । लेकिन हमारे मूलसूत्र में लिखी हुई बहुतसी बातें उनमें नहीं पाई जाती हैं । जैसे मङ्खलीपुत्र गोशाल का सम्बन्ध मूलसूत्र में है, किन्तु दिगम्बरों के किसी ग्रन्थ में यह बात नहीं लिखी है । मङ्खली गोशाल का वृत्तान्त बौद्धों के 'पिटक' ग्रन्थों में भी पाये जाने से यह सिद्ध होता है कि यह मूलसूत्र वही हैं । हमारे आगमों की रचना का समय २२०० बाईस सौ वर्ष से भी अधिक प्राचीन है, यह बात आचाराङ्गसूत्र के अङ्गरेजी तर्जुमे की भूमिका [प्रिफेस] में लिखी हुई है । दिगम्बरों के साथ हमलोगों का पदार्थ के मन्तव्य में विशेष फेरफार नहीं है, .किन्तु क्रियाविभाग में बहुत फेरफार है,। दोनों पक्षों में चौबीस तीर्थकर माने गये हैं और पद्रव्य, दो प्रमाण,
* मङ्खलीपुत्र गोशाल ने भी महावीरस्वामी के समय में ' आजीविक' पन्थ निकाला था। इसका विशेष वृत्तान्त भगवतीसूत्र में जिज्ञासुओं को देखना चाहिये ।
* इस वर्तमान चौवीसी के तीर्थङ्करों के नामे ये हैं
श्रीऋषभदेव १ अजितनाथ २ संभवनाथ ३ अभिनन्दनस्वामी ४ सुमतिनाथ ५ पद्मप्रभ ६ सुपार्श्वनाथ ७ चन्द्रप्रभ ८ सुविधिनाथ ९ शीतलनाथ १० श्रेयांसनाथ ११ वासुपूज्यस्वामी १२ विमलनाथ १३ अनन्तनाथ १४ धर्मनाथ १५ शान्तिनाथ १६ कुन्थुनाथ १७ अरनाथ १८ मल्लिनाथ १९
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[३२]
सप्तभङ्गी, नय, नवतत्व, स्याद्वाद, गृहस्थ धर्म और साधु. धर्म तथा 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्यादि उमास्वाति वाचक के कथन को और मूर्तिपूजादि को समान मानते हैं । किन्तु दिगम्बरमतावलम्बी लोग, साधुओं और तीर्थंकरों को दिगम्बर [वस्त्ररहित ] बताते हैं और हम लोग उनको वस्त्रधारी मानते हैं। सूत्रों में दो प्रकार के साधु बताये गये हैं: एक जिनकल्पी, दूसरे स्थविरकल्पी । जिनकल्पियों के भी अनेक भेद लिखे हैं; उनमें कितनेक वस्त्ररहित बताये गये हैं। परन्तु वह मार्ग इस समय विच्छिन्न हो गया है, केवल स्थविरकल्पी मार्गही इस समय प्रचलित है।
जिनकल्पी व्यवहार, पहिले मुनिलोग, क्लिष्टकर्म के क्षयार्थ स्वीकार करते थे; परन्तु उनको उस जन्म में केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता था। इस विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन पश्चवस्तुकादि ग्रन्थों में प्रतिपादन किया हुआ है। हमारे देवाधिदेवों की मूर्ति में कच्छ [ लंगोट ] का चिह्न रहता है और दिगम्बरों की मूर्ति वस्त्ररहित रहती है। दोनों पक्ष के लोग अर्हन्देव को ही ईश्वर मानते हैं । ___ अहंन्देव ने इस संसार को, द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से अनादि बताया है क्योंकि नतो जगत् का कोई कर्ता मुनिसुव्रतस्वामी २० नमिनाथ २१ नेमिनाथ २२ पार्श्वनाथ २३ महावीरस्वामी २४ ।
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[ ३३ ] हर्ता है और न कोई जीवों को सुख, दुःख देनेवाला है, केवल अपने २ कर्म के अनुसार जीवमात्र सुख दुःख का अनुभव करते हैं ।
बहुत से दर्शनानुयायी ईश्वरपर भार की मरजी ' ऐसा कहकर अपने पुरुषार्थ की हैं | वास्तविक में किसी का ईश्वर भला बुरा नहीं करता, क्योंकि ईश्वर में भले बुरे करने का कारण राग द्वेष नहीं है ।
I
रख के ' ईश्वर अवनति करते
यहाँ ऐसी शङ्का का प्राप्त होना स्वाभाविक है कि ऐसे वीतराग के मानने से फिर फायदा ही क्या है ? | इसके उत्तर में यह कहा जाता है कि आशय की शुद्धता और अशुद्धता पर कर्मबन्ध होता है । वीतराग का ध्यान करता हुआ वीतराग होता है और रागवान् का ध्यान करते हुए रागी होता है । यद्यपि जैसे वीतराग, वीतरागपन को नहीं देता उसीतरह रागवान्, रागपनको भी नहीं देता; किन्तु अध्यवसाय से फल होता है । सामान्य से जीवों के अध्यवसाय छः प्रकार के माने गये हैं । इसका जैनदर्शन में 'लेश्या '*
* लिश्यन्ते कर्मणा सह जीवा आभिर्लेश्याः ।
अर्थात् जिससे कर्म के साथ जीव का बन्धन हो उसका नाम लेश्या है । कृष्णलेश्या १ नीललेश्या २ कापोतलेश्या ३ पीतलेश्या ४ पद्मलेश्या ५ शुकुलेश्या ६ के नाम से छः प्रकार की लेश्या हैं । इनके लक्षण ये हैं:--
३
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। ३४ ] नाम लिखा । लेश्या के कारण, बन्ध जुदे २ प्रकार के होते हैं । इसी कारण से जगत् में विचित्र प्रकार के जीव दिखलाई पड़ते हैं। अत एव अध्यवसाय की शुद्धि के लिये वीतराग का पूजन अत्यावश्यक है।
जैनमत में रागद्वेषवाले को ईश्वर नहीं मानते ।
जगदादिरूप कार्य की उत्पत्ति में अवान्तर प्रलय माननेवाले नैयायिक तीन कारण मानते हैं । १ समवायी जैसे परमाणु, २ असमवायी जैसे व्यणुकादिसंयोग और तीसरा
अतिरौद्रः सदा क्रोधी मत्सरी धर्मवर्जितः । निर्दयो वैरसंयुक्तः कृष्णलेश्याऽधिको नरः ॥ १ ॥ अलसो मन्दबुद्धिश्च स्त्रीलुब्धः परवश्वकः । कातरश्च सदा मानी नीललेइयाऽधिको भवेत् ॥२॥ शोकाकुलः सदा रुष्टः परनिन्दाऽऽत्मशंसकः । संग्रामे प्रार्थते मृत्यु कापोतक उदाहृतः ॥३॥ विद्यावान् करुणायुक्तः कार्याकार्यविचारकः । लाभालाभे सदा प्रीतः पीतलेश्याऽधिको नरः ॥४॥ क्षमावांश्च सदा त्यागी देवार्चनरतोद्यमी । शुचिर्भूतसदानन्दः पद्मलेश्याऽधिको भवेत् रागद्वेषविनिर्मुक्तः शोकनिन्दाविवर्जितः । परमात्मत्वसंपन्नः शुखलेश्यो भवेन्नरः
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[३५ ] निमित्तकारण ईश्वर, अदृष्ट और कालादि को मानते , हैं । इसमें पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से पूर्वोक्त परमाणु, व्यणुकादि संयोग, काल तथा अदृष्ट के कारण मानने में जैनमतानुयायियों को विवाद नहीं है, परन्तु ईश्वर को निमित्तकारण नहीं मानते हैं, क्योंकि कृतकृत्य ईश्वर को दुनिया के फन्द में डालना उचित नहीं है ।
हमलोग कार्य की उत्पत्ति में १ काल, २ स्वभाव, ३ नियति, ४ पुरुषाकार और ५ कर्म ये पाँच कारण मानते हैं । इनमें यदि एक की भी कमी हो तो कोई कार्य नहीं हो सकता। ___ पाँचो के कारणत्व में दृष्टान्त इस रीति से रखियेः- जैसे स्त्री बालकको जन्म देती है तो उसमें प्रथम काल की अपेक्षा है, क्योंकि विना काल के गर्भ धारण नहीं कर सकती। दूसरा स्वभाव कारण है, यदि उसमें बालक उत्पन्न होने का स्वभाव होगा तो उत्पन्न होगा नहीं तो नहीं। तीसरा अवश्यंभाव; यदि पुत्र उत्पन्न होनेवाला होगा तभी होगा । पुरुषाकार (उद्यम) भी उसमें दरकार है क्योंकि कुमारि कन्या के पुत्र नहीं होसकता । काल, स्वभाव, नियति और पुरुषार्थ रहने पर भी यदि भाग्य ( कर्म ) में होगा तो होगा, नहीं तो तमाम कारण निष्फल हो जायँगे।
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[ ३६ ] केवल भाग्यही पर आधार रखकर बैठने से कार्य नहीं होमकता, जैसे तिल में तेल है परन्तु उद्यम के विना नहीं मिल सकता है । यदि उद्यम ही फलदायक माना जाय, तो उन्दुर (मूमा) उद्यम करता हुआ भी सर्प के मुख में जा पड़ता है, इसलिये उद्यम निष्फल है । यदि भाग्य और उद्यम दाही मे कार्य माना जाय तो भी ठीक नहीं होसकता है, क्योंकि कृपीवल [खेतिहर] विना ममय सत्तावान् बीज को उद्यम पूर्वक बोवे तो भी वह फलीभूत नहीं होगा क्योंकि काल नहीं है । यदि इन तीनों ही को कार्य के कारण मानें, तो भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि छरमूंग [ जो मूंग चुराने से नहीं चुरती ] के बोने से काल, भाग्य, पुरुषार्थ के रहने पर भी उगने का स्वभाव न होने से पैदा नहीं होती । यदि पूर्वोक्त तीन में चौथा स्वभाव भी मिला लिया जाय, तोभी यदि होनेवाला नहीं है तो कभी नहीं होता, जैसे कि कृषीवल ने ठीक समय पर बीज बोया, तो बीज में सत्ता भी है और अङ्कुर [कुला] भी फूटा, लेकिन यदि धान्य होनेवाला नहीं है तो कोई न कोई उपद्रव से नष्ट होजायगा। इसलिये पाँचो कारणों के विना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। ___ मोक्ष की सिद्धि के लिये बारह प्रकार की तपस्या भी बताई हुई है। जिसके अनशनादि छः बाह्य और प्रायचित्तादि छः आम्यन्तर मेद हैं । इन बाद्याभ्यन्तर तपस्याओं
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[ ३७ ] के करने से जो कर्म का नाश होता है उसको निर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा दो प्रकार की है-एक सकामनिर्जरा, दूसरी अकामनिर्जरा । अकामनिर्जरा प्राणिमात्र को होती है किन्तु सकामनिर्जरा मोक्षाभिलाषी प्राणियों को ही होती है और सकामनिर्जरा करनेवाले जीव शीघ्र मोक्षगामी होते हैं । जैनेतर तामली, पूरण, कमठादि तापस भी सकामनिर्जरावान् माने गये हैं, क्योंकि पूर्वोक्त अनशनादि बाह्य तप को वे लोग भी करते थे। जैननामधारी होके जो कर्मक्षयनिमित्तक पूर्वोक्त तपस्या को नहीं करेंगे, वे मकामनिर्जरा के भागी नहीं होंगे। इस बात को जैनाचार्यों ने स्पष्टरूप से कहा है । इनके लिये मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य चार प्रकार की भावनाओं के बतानेवाले तीर्थकर महाराजों ने स्वयं इन भावनाओं को चण्डकौशिक [सर्प] और गोपालदारकादि के किये हुए उपसर्ग में चरितार्थ करके, जीवों को उपदेश दिया है-कि यदि तुमलोग निःसीम शान्ति की अभिलाषा रखते हो तो पूर्वोक्त * योगशास्त्र के चौथे प्रकाश में लिखा हुआ है:
अनशनमौनोदय, वृत्तेः संक्षेपणं तथा रसत्यागस्तनुक्लेशो लीनतेति बहिस्तपः ॥ ८९ ।। प्रायश्चित्तं वैयावृत्त्यं स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभं ध्यानं षोढेत्याभ्यन्तरं तपः ।। ९० ॥
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[३८] चारों भावनाओं को अपने हृदय में धारण करके समस्त जीवोंपर शान्ति का सिञ्चन करो ।
इसी शान्ति के प्रतिपादक मन्त्रों को नित्य पाठ करने के लिये हम लोगों को भी उपदेश दिया है:" श्रीश्रमणसंघस्य शान्तिर्भवतु । श्रीजनपदानां शान्तिर्भवतु । श्रीराजाधिपानां शान्तिर्भवतु । श्रीराजसन्निवेशानां शान्तिर्भवतु ॥ श्रीगौष्ठिकानां शान्तिर्भवतु । श्रीपौरमुख्याणां शान्तिर्भवतु ।
* योगशास्त्र के चौथे प्रकाश में लिखा हुआ है:- .
मा कार्षात्कोऽपि पापानि मा च भत्कोऽपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते ॥ ११८ ।। अपास्ताशेषदोषाणां वस्तुतत्त्वावलोकिनाम । . गुणेषु पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥ ११५ ॥ दीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम् । प्रतीकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥ १२० ॥ क्रूरकर्मसु निःशवं देवतागुरुनिन्दिषु । आत्मशंसिषु योपेक्षा तत्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ॥ १२१ ॥
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[३९] श्रीपौरजनस्य शान्तिर्भवतु । श्रीब्रह्मलोकस्य शान्तिर्भवतु।” इसप्रकार सर्वत्र शान्ति रखने के कारण को विज्ञपुरुष सहज में समझ जाँयगे, तथापि कुछ स्पष्ट कर देना अयोग्य नहीं गिना जायगा । जबतक राजा को शान्ति न होगी, तब तक सामान्य राजाओं में भी शान्ति नहीं होसकती और राजा को अशान्ति होने से प्रजा को भी शान्ति नहीं होगी; यह तो स्पष्टही है। इसी प्रकार एक की अशान्ति, उत्तर उत्तर अनेक की अशान्ति का कारण हो जाती है। अब इतने लोगों पर शान्ति स्थापन करने का हमलोगों के शास्त्रकारों ' का क्या कारण है सो तो आपलोगों की समझ में आही
गया होगा। - जो साधुओं के पाँच महाव्रत और श्रावक [ गृहस्थ ] के बारह नियम हैं, उन सब का उद्देश्य अहिंसारूप पुष्पवाटिका की रक्षा ही हैं, यह बात विचारकरने पर स्पष्ट होती है । तथापि इस बात को थोड़ा स्पष्ट करदेना उचित है । देखिये ! असत्य बोलने से संमुखस्थ पुरुष को दुःख होता है और दःख उत्पन्न होना ही हिंसा है. इसी रीति से चोरी आदि में भी जानलेना।
मुनिलोग त्रम और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की रक्षा करने के उद्देश्य से ही हर एक प्रयत्न को करते हैं।
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[४०] गृहस्थ, स्थावर रक्षा में यत्नपूर्वक त्रस की रक्षा करते हैं।
यहाँ एक बातपर आपलोगों को अवश्य ही ध्यान देना चाहिये कि जैनों की अहिंसा की व्याख्या का अनेक अनजान मनुष्यों ने उलटा ही तात्पर्य समझा है । हम पहले कह चुके हैं कि कितनेलोग देशोन्नति की वाधा में जैनों की अहिंमा को ही अग्रणी मानते हैं; परन्तु यह एक बड़ी भारी भूल है, जिसके स्पष्ट किये बिना यह निबन्ध [व्याख्यान पूरा नहीं किया जा सकता। हमारं जैनशास्त्रानुसार अहिंमाविषयक आज्ञा की सीमा वहाँतक ही ममझनी चाहिये, जिससे कि निदोष रीति से अन्य के दुःख को विना उत्पादन किये विहार करनेवाले निरपराधी जीव की हिंसा न कीजावे । राजा भरत ऐसे प्रबल चक्रवर्ती, कि जिनलोगों ने अपने साम्राज्य की रक्षा करने के लिये हजारों वर्ष भयङ्कर युद्ध किया था; वे भी परम जैन माने जाते हैं; इतना ही नहीं, किन्तु उनका उसी जन्म में मोक्ष माना गया है । इस बात से जो जैनप्रजापर देश की अवनति का दोष लगाया जाता है, वह इससे निवृत्त हो जायगा ऐसा हम निश्चय करते हैं।
हम पहले कह चुके हैं कि जैनधर्म के पालन करनेवाले और उपदेशक पूर्वकाल में क्षत्रियादि थे; जिन प्रबल उपदेशकों के प्रताप से हम अपना गौरव इस समय में मी स्थिर रख सके हैं । इस विषय की ऐतिहासिक प्रमाणे
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[४१ ] इतिहास में बहुत प्रामाणिक रीति से दी गई हैं, परन्तु उसकी विवेचना करके हम आपलोगों का अब धैर्य नहीं हटायेगें। ___ अब मैं स्याद्वाद का दिग्दर्शन मात्र कराना चाहता हूँ:
स्याद्वाद का अर्थ अनेकान्तवाद है । अर्थात् एक वस्तु में नित्यत्व, अनित्यत्व; मदृशत्व, विरूपत्व; सत्त्व, असत्त्व; और अभिलाप्यत्व, अनभिलाप्यत्व इत्यादि अनेक विरुद्ध धर्मों का सापेक्ष स्वीकारही स्याद्वाद [ अनेकान्तवाद कहलाता है। __ आकाश से लेकर दीप [दीपक ] पर्यन्त समस्त पदार्थ नित्यत्वानित्यत्वादि उभय धर्म युक्त हैं । इसके विषय में अनेक युक्तियुक्त प्रमाण, स्याद्वादमञ्जरी और अनेकान्तजयपताका प्रभृति ग्रन्थों में लिखे हैं । हम को अनेक दर्शन देखनेपर यह बात विदित हुई है कि हमारे जैनशास्त्रकारही ने स्याद्वाद नहीं माना है, किन्तु अन्यदर्शनकारों ने भी प्रकारान्तर से अनेकान्तवाद को स्वीकार किया है । इसपर आप लोग थोड़ी देर ध्यान दीजिये । देखिये ! प्रथम साङ्ख्य को ही लीजिये; उसने भी सत्त्व, रज और तमोगुण की साम्यावस्था को प्रधान माना है। इसलिये उसके मत में भी प्रसाद, संतोष, तथा दैन्य वगैरह
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[ ४२ ] भिन्न २ स्वभाववाली अनेक वस्तुओं का एक प्रधान स्वरूप स्वीकार किया गया है, इसका नाम स्याद्वाद छोड़कर
और क्या हो सकता है ? । इसीरीति से नैयायिकों को लीजिये; वे भी द्रव्यत्वादि को, अनुवृत्ति (एकाकार प्रतीति ) और व्यावृत्ति [भिन्न प्रतीति ] के ज्ञान के विषय होने से, मामान्य तथा विशेष रूप मानकर अनेकान्तवाद अर्थतः स्वीकार करते हैं । बौद्धों ने भी एक चित्रपट [वस्त्र] के भीतर नील, पीत आदि नाना आकारखाले ज्ञान को स्वीकार करके भङ्ग्यन्तर से स्याद्वाद स्वीकार किया है । ___ जैनधर्म अनादि है, और सब प्रकार के दर्शनों से सर्वथा स्वतन्त्रक है, यह बात पूर्वोक्त विवेचना से आप लोगों को स्पष्ट हो गई होगी। ___ जैनतत्वज्ञान के सम्बन्ध में हमको एक बात याद आती है कि जैसे आज कल पदार्थविज्ञानवादी लोग साइन्स [ पदार्थविज्ञानविद्या ] से सूक्ष्मदर्शक [ दूरबीन
* In conclusion let me assert my conviction that Jainism is an original system, quite distinct and independent from all others; and that, therefore, it is of great importance for the study of philoso phical thought and religious life in ancient India. Read in the congress of the history of Religions
Br H. JACOBI.
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[ ४३ ] आदि] यन्त्रादि द्वारा नये २ आविष्कार करके जनसमाजको चकित करते हैं, वैसेही अतीन्द्रिय पदार्थ के विवेचक आज से हजारों वर्ष के पहिले विना किसी यन्त्रादि साधन के हमारे शास्त्रकार जल और मक्खन तथा पौधे आदि में जीव की सत्ता बता गये हैं । इससे सिद्ध होता है कि हमारे शास्त्रीय विषय, तत्वज्ञान से भरपूर हैं; कमी इतनी ही है कि हमारा प्रमाद [ आलस्य ] ही हमको हर एक रीति से आगे उच्चश्रेणीपर बढ़ने के लिये अटकाये हुए है।
अन्त में ऐसी प्रार्थनापूर्वक हम अपने व्याख्यान की समाप्ति करते हैं किः'न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो,
न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्सत्वपरीक्षया तु,
त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिता स्मः' ॥१॥
॥ इति ॥
.
aame-.
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प्रस्थान अपने संवत् १९९२ के आषाढ के अंक में क्या लीखता है ।
अशोकना शिलालेखो उपर दृष्टिपात : - लेखक : विद्यावल्लभ इतिहासतव महोदधि आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरि; प्रकाशक: श्री यशोविजय जैनग्रन्थमाला, भावनगर, इ. स. १९३६, किंमत चार आना.
आ नाना पुस्तकनुं एमां साची ऐतिहासिक दृष्टि होवाने ली, अमे घणुं मूल्य आंकीए छीए. वडोदराना डॉ. त्रिभुवनदास लहेरचंद शाहे 'प्राचीन भारतवर्ष' नामनुं पुस्तक लख्युं छे, जेमां आ देशना प्राचीन इतिहासनी सर्वमान्य मान्यताओने छलप्रचुर दलीलोथी उलटाववानो ग्लानिजनक प्रयास करवामां आव्यो छे. उपला पुस्तकना लेखक आचार्य विजयेन्द्रसूरिजी साचुं ज कहे छे के " दाक्तरसाहेबनां जेवां पुस्तको बहार पाडवाथी जैनोने लाभ थवाने बदले ऊलटी हानि थवानो संभव छे " ( जुओ ' किंचिद् वक्तव्य' पृ. ३ ). मतलब के डॉ. त्रिभुवनदास शाहनी प्रवृत्ति इतिहासने तथा जैनोने हानिकारक ज छे.
डॉ. त्रिभुवनदास शाहनां ' प्राचीन भारतवर्ष' नामना पुस्तकनी समालोचना करवा माटे आचार्यश्रीए असल अने
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• [४५ ]
प्रमाणभूत ऐतिहासिक सामग्रीओ एकठी करवा मांडी हती, पण ए अरसामा ‘जैन रौप्य महोत्सव अंक' मां डॉ. शाहनोज 'संप्रति महाराजना शिलालेखो किंवा पदच्युत सम्राट अशोक' नामनो लेख तेओए जोयो अने तेनोज प्रतिवाद प्रथम करवानुं एमने इष्ट जणातां आ लघु पुस्तक बहार पाड्यु. जो के डॉ. शाहना उपर्युक्त पुस्तकनी समालोचनानो ग्रन्थ प्रगट करवानो एमनो विचार छे ज. ___ डॉ. शाहे अशोकना प्रसिद्ध शिलालेखोने संप्रति महाराजाना ठराववा माटे जे खोटी अने भ्रामक दलीलो करी छे तेनुं आ पुस्तकमां वीगतवार निरसन करवामां आव्यु छे. जेओने ऐतिहासिक विवेचनोनो अभ्यास नथी तेवां सामान्य माणसो ऐतिहासिक रूपनो आभास आपती तथा ऐतिहासिक विद्वानोनां नामोथी छेतरती वातोमांथी सत्यासत्यनो विवेक करवा असमर्थ होय छे. तेमां पण पोताना धर्मने के स्वधर्मना प्रभावक महापुरुषने महत्त्व मळतुं जुए त्यारे ए महत्त्व साचुं मळे छे के खोटुं मळे छे ए जोवा जेटली सूक्ष्म दृष्टि वगरनां माणसो जरुर तणाइ जाय. आ स्थितिमा आचार्यश्रीतुं आ पुस्तक घणु उपकारक छे. एमां डॉ. शाहना विधानोर्नु पोकळपणुं बहु स्पष्ट रीते बताव्युं छे, अने साची ऐतिहासिक विचारणानी पद्धति पण रजू करी छे.
ढूंकामां, आ पुस्तक प्रगट थवाथी अज्ञान लोकोमा ऐतिहासिक भ्रमणा फेलाती अटकशे ए जोइने अमने हर्ष थाय छे.
आ पुस्तकना लेखक जैनधर्मना प्रसिद्ध आचार्य होवाथी एमना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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[ ४६ ] लखाण उपर ए सांप्रदायिक द्वेषमूलक होवानी शंका उत्पन्न थवानुं कारण नथी. तेओ खलं ज कहे छे, के “ आजना प्रकाशमय ऐतिहासिक क्षेत्रमा अंधकार मानी जनतानी आंखे पाटा बांधवानो अने बे विधर्मी राजाओना लेखोने पोताना धर्मना राजाना लेखो मनावी बीजानी संपत्ति स्वकीय संपत्ति मनाववानो दाक्तर साहेबे विचित्र प्रयत्न कर्यो छे ” (पृ. ५९). अलबत्त, आचार्यश्री कहे छे तेम " तेमनी मुराद पार पडी नथी एम तो जरुर कही शकाय अने एटलुं आपणुं सद्भाग्य छे एमां शंका नथी." खरी बात छे के जैनसमाजमां आवा साचा इतिहासहृदयकोविद आचार्य जागृत छे ए जैनसमाजनुं ज नहि पण गुजरातनुं सद्भाग्य छे, एम आ स्तुत्य अने अंतरना इतिहासप्रेमथी प्रेरित प्रयासने जोइने कह्या वगर रही शकता नथी.
दुर्गाशंकर के. शास्त्री.
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वीर अपने २२ अगस्त सन् १९३६ के अंक में क्या कहता है। श्रीयशोविजय जैन ग्रंथमाला, भावनगर की
चार गुजराती पुस्तकें:
याति का सामना का
(१) जैन धर्मनुं उत्कृष्ट स्वरूप-पृष्ठ ३६ सुन्दर छपाई । श्वेताम्बराचार्य श्रीविजयधर्मसूरीश्वर और पाश्चात्य विद्वान् प्रो. जैकोबी का पत्र व्यवहार जैन तत्वों और अहिंसा के विषय में हुआ था । वही इस पुस्तक में प्रगट किया गया है। धार्मिक विचारवाले लोगों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिये । -)। के टिकट भेजने से मुफ्त मिलती है।
(२) जगत् अने जैन दर्शन-इस ६४ पृष्ठों की सुंदर पुस्तिका में श्रीमान् विजयेन्द्रसूरिजी के जैनधर्म विषयक उन भाषणों का संग्रह किया गया है जो उन्हों ने विभिन्न सभाओं में दिये थे । धर्म प्रचार के लिये पुस्तक उपयोगी है।
(३) श्री वीर विहार मीमांसा-इस पुस्तिका के लेखक भी श्री विजयेन्द्रसूरिजी हैं । कुल १८ पृष्टों में आपने भ० महावीर की छद्मस्थावस्था में किये गये विहार पर गवेषणा पूर्ण विचार किया है। आपने सिद्ध किया है कि भ० महावीर राजपूताना और गुजरात में नहीं आये थे । इस दिशा में विचार करने वाले
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[ ४८ ]
आप ही प्रथम विद्वान् हैं। अन्य विद्वानों को भी इस और प्रगति शील होना चाहिये ।
(४) अशोकना शिलालेखो उपर दृष्टिपात - कुछ समय हुआ भावनगर के 'जैन' पत्र की सिलवर जुबली विशेषांक में डा० त्रिभुवनदास शाह का एक लेख अशोक के विषय में प्रगट हुआ था, जिस में उन्हों ने अशोक के धर्म लेखों को जैन सम्राट् सम्प्रति का बताया था । प्रस्तुत पुस्तक में उपरोक्त सूरिजी म० ने उनके लेख का खण्डन किया है और सिद्ध कर दिया है कि वे लेख सम्प्रति के नहीं हैं । आपकी शैली गूढ, निष्पक्ष और गवेषणात्मक है । पृ० सं० ६६ मू० ।)
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________________ allbllo lle ! 'હિe છe. શ્રી યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ભાવનગ૨. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com