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जा सके, जैसे भोजन; उपभोग जो वारंवार काम में लाया जाय, जैसे वस्त्रादि । इन दोनों का नियम ]; अनर्थदण्डनिषेध ३ [ किसी भी निरर्थक क्रिया करने का निषेध ] ये गुणत्रत हैं । और सामायिक १ [ रागद्वेष रहित हो, सब जीवों पर समभाव होकर ४८ मिनट पर्यन्त एकान्त में बैठकर आत्मचिन्तन करना ]; देशावकाशिक २ [ पूर्वोक्त दिग्विषय में कहे हुए नियम में और भी संक्षेप करना ]; पौषध ३ [ एक दिन अथवा अहोरात्र [ आठ पहर ] साधु की तरह वृत्ति धारण करना ]; अतिथि संविभाग ४ [ मुनियों को दिये विना भोजन नहीं करना ] ये शिक्षाव्रत हैं । इनका विशेष वर्णन जिज्ञासुओं को उपासकदशाङ्गसूत्र और योगशास्त्रादि ग्रन्थों में देख लेना चाहिये ।
ऊपर के दोनों धर्मों का सेवन कर्मक्षय करने के लिये किया जाता है ||
जीव या आत्मा का मूल स्वभाव, स्वच्छ निर्मल अथवा सच्चिदानन्दमय है, किन्तु कर्मरूप पौगलिक बोझा चढ़ने से उसका मूलस्वरूप आच्छन्न अर्थात् ढक जाता है । जिस समय पौगलिक बोझा निर्मूल हो जाता है उस समय आत्मा, परमात्मा की उच्चदशा को प्राप्त करता है और लोकान्त में जाकर स्वसंवेद्य [ उसीके जानने के योग्य ] सुख का अनुमन करता है । लोक और अलोक की व्यवस्था हम पहि-
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