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[२५] और उस पर्दा के सर्वथा दूर होनेपर मोक्षगामी अथवा सिद्ध कहा जाता है । सिद्धजीव अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र और अनन्तवीर्यादि से युक्त हो जाता है । यहांपर यह शङ्का उठ सकती है कि ज्ञान तो अरूपी पदार्थ है उसका अनन्त व्यवहार कैसे होसकता है । इसका उत्तर यह है कि-ज्ञेय पदार्थ के अनन्त होने से तद्विषयक ज्ञान को भी अनन्त मानने में किसी प्रकार की हानि नहीं होसकती । एवंरीत्या दर्शन, चारित्र और वीर्यादि में भी समझलेना । जैनशास्त्रकार मोक्ष में संसारी सुख से विलक्षण सुख मानते हैं । जिस तरह कोई पुरुष-आधि, व्याधि, उपाधि • ग्रस्त होकर दुःख का अनुभव करता है और उससे मुक्त होनेपर सुख का अनुभव करता है; उसीतरह आत्मा के ऊपर जहाँतक कर्म का पर्दा पड़ा हुआ है वहाँतक सांसारिक सुख और दुःख का अनुभव करता है और कर्म का पर्दा दूर होनेपर वास्तविक, निर्बाध, अनुपमेय, स्वसंवेद्य सुख का अनुभव करता है । साङ्ख्य दर्शनकार प्रकृति के वियोग में मोक्ष मानते हैं और नैयायिकों ने दुःखध्वंसरूपही मोक्ष माना है, तथा वेदान्ती [ अध्यास से मुक्त ] ब्रह्मही को मुक्ति का स्वरूप कहते हैं, एवं बौद्ध पश्चस्कन्धरूप दुःख, रागादिगण और क्षणिकवासनास्वरूप मार्ग के निरोध को मोक्ष मानते हैं।
मुक्ति पदार्थ को आस्तिकमात्र मानते हैं, परश्च जैने
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