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[४०] गृहस्थ, स्थावर रक्षा में यत्नपूर्वक त्रस की रक्षा करते हैं।
यहाँ एक बातपर आपलोगों को अवश्य ही ध्यान देना चाहिये कि जैनों की अहिंसा की व्याख्या का अनेक अनजान मनुष्यों ने उलटा ही तात्पर्य समझा है । हम पहले कह चुके हैं कि कितनेलोग देशोन्नति की वाधा में जैनों की अहिंमा को ही अग्रणी मानते हैं; परन्तु यह एक बड़ी भारी भूल है, जिसके स्पष्ट किये बिना यह निबन्ध [व्याख्यान पूरा नहीं किया जा सकता। हमारं जैनशास्त्रानुसार अहिंमाविषयक आज्ञा की सीमा वहाँतक ही ममझनी चाहिये, जिससे कि निदोष रीति से अन्य के दुःख को विना उत्पादन किये विहार करनेवाले निरपराधी जीव की हिंसा न कीजावे । राजा भरत ऐसे प्रबल चक्रवर्ती, कि जिनलोगों ने अपने साम्राज्य की रक्षा करने के लिये हजारों वर्ष भयङ्कर युद्ध किया था; वे भी परम जैन माने जाते हैं; इतना ही नहीं, किन्तु उनका उसी जन्म में मोक्ष माना गया है । इस बात से जो जैनप्रजापर देश की अवनति का दोष लगाया जाता है, वह इससे निवृत्त हो जायगा ऐसा हम निश्चय करते हैं।
हम पहले कह चुके हैं कि जैनधर्म के पालन करनेवाले और उपदेशक पूर्वकाल में क्षत्रियादि थे; जिन प्रबल उपदेशकों के प्रताप से हम अपना गौरव इस समय में मी स्थिर रख सके हैं । इस विषय की ऐतिहासिक प्रमाणे
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