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[४१ ] इतिहास में बहुत प्रामाणिक रीति से दी गई हैं, परन्तु उसकी विवेचना करके हम आपलोगों का अब धैर्य नहीं हटायेगें। ___ अब मैं स्याद्वाद का दिग्दर्शन मात्र कराना चाहता हूँ:
स्याद्वाद का अर्थ अनेकान्तवाद है । अर्थात् एक वस्तु में नित्यत्व, अनित्यत्व; मदृशत्व, विरूपत्व; सत्त्व, असत्त्व; और अभिलाप्यत्व, अनभिलाप्यत्व इत्यादि अनेक विरुद्ध धर्मों का सापेक्ष स्वीकारही स्याद्वाद [ अनेकान्तवाद कहलाता है। __ आकाश से लेकर दीप [दीपक ] पर्यन्त समस्त पदार्थ नित्यत्वानित्यत्वादि उभय धर्म युक्त हैं । इसके विषय में अनेक युक्तियुक्त प्रमाण, स्याद्वादमञ्जरी और अनेकान्तजयपताका प्रभृति ग्रन्थों में लिखे हैं । हम को अनेक दर्शन देखनेपर यह बात विदित हुई है कि हमारे जैनशास्त्रकारही ने स्याद्वाद नहीं माना है, किन्तु अन्यदर्शनकारों ने भी प्रकारान्तर से अनेकान्तवाद को स्वीकार किया है । इसपर आप लोग थोड़ी देर ध्यान दीजिये । देखिये ! प्रथम साङ्ख्य को ही लीजिये; उसने भी सत्त्व, रज और तमोगुण की साम्यावस्था को प्रधान माना है। इसलिये उसके मत में भी प्रसाद, संतोष, तथा दैन्य वगैरह
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