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अन्तःकरण की तरह व्यवहित ( ढके हुए) पदार्थ के प्रकाशक होने से चक्षुरिन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानाजाता है और जो अप्राप्यकारी नहीं है वह व्यवहित का प्रकाशक भी नहीं है, जैसे जिह्वेन्द्रिय । यहां पर यदि ऐसी शङ्का उत्थित हो कि चक्षुरिन्द्रिय व्यवहित पदार्थ की प्रकाशक कैसे है ? क्योंकि वृक्षादि से व्यवहित पदार्थ को तो प्रकाश नहीं करती, इसलिये यह सिद्धान्त ठीक नहीं है । इस पर जैनशास्त्रकारों का यह समाधान है कि काँच, विमल जल और स्फटिकरत्न की दीवाल के व्यवधान रहनेपर भी चक्षुरिन्द्रिय से वस्तु का ज्ञान अवश्य होता है; परन्तु योग्यता न होने से
एतन्न युक्तं शतकोटिकाचस्वच्छोदकस्फाटिकभित्तिमुख्यैः । पदार्थ पुञ्जे व्यवधानभाजि संजायते किं नयनान्न संवित्! ॥ ७० ॥ और पृष्ठ ९२ में:
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तस्थौ स्थेमा तदस्मिन् व्यवधिमदमुना प्रेक्ष्यते येन सर्व तत्सिद्धा नेत्रबुद्धिर्व्यवधिपरिगतस्यापि भावस्य सम्यक् । कुड्यावष्टब्धबुद्धिर्भवति किमु न चेनेदृशी योग्यताऽस्य
प्राप्तस्यापि प्रकाशे प्रभवति न कथं लोचनाद्गन्धबुद्धिः १ ।। ७५ ।। किंवा न प्रतिभासते शशधरे कर्मापि तद्रूपवत् ?
दूराद्विलसत् तदस्य हृदये लक्ष्येत किं लाञ्छनम् ? । तस्माच्चक्षुषि योग्यतैव शरणं साक्षी च नः प्रत्यय
स्तन् तर्कप्रगुण ! प्रतीहि नयनेष्वप्राप्यधीकर्तृताम् ॥ ७६ ॥
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