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और यथार्थ लेखक थे । इस प्रशंसा का कारण यह है कि जो निःस्पृहता से काम किया जाता है वही सर्वोत्तम होता है; यह बात सब को विदित ही है । जो जैन महामुनि आज भी अपना आचार, विचार; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार रख सके हैं उसका मूल कारण जिनदेव का मोक्षपरक उपदेश ही है । सभी जिनदेव | सभी जिनदेव धर्मशूर क्षत्रियकुल ही में उत्पन्न हुए हैं क्योंकि क्षत्रिय सब कहीं शूरता (वीरता) करते हैं; कारण यह है कि उनका वह वीर्य, उसी प्रकार का है । इसलिये जैनधर्म में क्षत्रियकुल सर्वोत्तम बताया गया है। प्राय: करके जैनधर्म के पालक और उपदेशक बहुत से क्षत्रिय ही थे । ।
क्षत्रिय केवल अपने पराक्रम के सिवाय दूसरे की कभी दरकार नहीं रखते हैं । शूरता के बिना देश की उन्नति और जाति की उन्नति, तथा धर्मोन्नति आदि कोई भी कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि शास्त्रकारों ने स्वयं कहा है कि " जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा " अर्थात् जो कर्म में शूर हैं वे ही धर्म में भी शूर हैं । किन्तु धर्माधिकार में ब्राह्मण, वैश्य,
*स्थानाङ्गसूत्र के पत्र २७६ में लिखा है
चत्तारि सूरा पण्णत्ता । तं जहा - खन्तिसूरे, तवसूरे, दाणसूरे, जुद्धसूरे । अर्थात् शूर चार प्रकार के होते हैं-१ क्षमाशूर,
२ तपशूर, ३ दानशूर तथा ४ युद्धशूर ।
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