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[९] शूद्र आदि सब की समान सत्ता है और उपदेशकभी हो सकते हैं। आत्मसत्ता के प्रकट होनेपर चारों वर्गों की समान सत्ता मानी गई है, क्योंकि किसी प्रकार का पक्षपात जैनशास्त्र में नहीं है । केवल क्षत्रियकुल में तीर्थंकरों के होने से वह कुल प्रतापी माना गया है, यदि क्षत्रिय भी धर्मविरुद्ध आचरण करेगा तो जरूर अधोगति में जायगा।
बहुत से मनुष्यों की ऐसी समझ है कि जैनधर्मी मनुष्यों ने 'अहिंसा परमो धर्मः' की व्याख्या को विशेष बढ़ाकर युद्ध आदि कार्य में हमारे देश की अत्यन्त अवनति कर डाली है । इसबात का हम उत्तर आगे चल के अहिंसाप्रक· रणस्थ राजा भरत के दृष्टान्त में देंगे।
पूर्वोक्त चारो अनुयोगों में संपूर्ण जैनधर्म का तत्त्व परिपूर्ण है। इन्हीं अनुयोगों की सिद्धि के लिये 'प्रमाण'
और 'नय' दो पदार्थ माने गये हैं । क्योंकि प्रमेय (ज्ञेय) वस्तु की सिद्धि, विना प्रमाणतथा नय के नहीं हो सकती इसी से कहा हुआ है कि " प्रमाणनयैरधिगमः "।" प्रमाण सर्वांश का और नय एकांश का ग्राहक है । प्रमाण
* प्रमाण की व्याख्या इस रीति से है-'प्रकर्षेण संशयाद्यभावस्वभावेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तु येन तत् प्रमाणम्' अर्थान् संशय, विपर्यय (वैपरीत्य ) आदि से रहित वस्तु का जिससे निश्चय हो उसे प्रमाण कहते हैं ।
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