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। १५ ] ६ समभिरूड़नय, पर्याय के भेद से अर्थ को भी भिन्न कहता है।
७ एवंभूतनय, स्वकीय कार्य करनेवाली वस्तु ही को वस्तु मानता है। ___इन सातो नयों का द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय में समावेश होता है । ये पूर्वोक्त नय परस्पर विरुद्ध रहनेपर भी मिलकर ही जैनदर्शन का सेवन करते हैं। इसमें दृष्टान्त यह है कि जैसे संग्राम की युक्ति से पराजित समग्र सामन्त राजा परस्पर विरुद्ध रहनेपर भी एकत्रित होकर चक्रवर्ती राजा की सेवा करते हैं।
इनका विस्तारपूर्वक वर्णन नयचक्रसार और स्याद्वादरत्नाकर के सातवें परिच्छेद आदि में है; जिज्ञासु को यहाँ देखलेना चाहिये।
पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप को पूर्वोक्त प्रमाण और नय द्वारा जाननेवाला पुरुष, जैनशास्त्र में श्रद्धावान् माना
* जैनस्तोत्रसंग्रह प्रथम भाग के ७० पृष्ठ में लिखा है ।
सर्वे नया अपि विरोधभृतो मिथस्ते __ संभूय साधुसमयं भगवन् ! भजन्ते । भूपा इव प्रतिभटा भुवि सार्वभौम
पादाम्बुजं प्रधनयुक्तिपराजिता द्राक् ॥ २२ ॥
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