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है, उसके बाद निवृत्ति मार्ग की प्राप्ति कही गई है । पूर्वोक्त नव तत्त्वों के शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला चौथी सीढ़ी पर है; उसको जैनशास्त्रकार सम्यग्दृष्टि जीव कहते हैं । उसके आगे बढ़ने पर त्यागवृत्ति अंशतः जब आती है तो वह गृहस्थ धर्मवान् श्रावक कहलाता है और उससे आगे बढ़ा हुआ सर्वांशत्यागी जैन मुनि माना जाता है । उससे भी अधिक २ गुण बढ़ने से दशवीं सीढ़ी में जानेपर समस्त क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का नाश होता है; एवं उसके आगे बढ़ा हुआ योगीन्द्र और उसके आगे केवली माना जाता है ।
केवली दो प्रकार के होते हैं; एक सामान्य केवली और दूसरा तीर्थकर । इन दोनों में ज्ञानादि अन्तरंग लक्ष्मी बराबर रहने पर भी जिन्होंने जन्मान्तर में बड़े पुण्य को उपार्जन [ संचय ] किया हो, वही 'तीर्थंकरनामकर्म रूप पुण्यसंचय होने से तीर्थकर कहलाते हैं और वे राग, द्वेष आदि अठारह * दूषणों से रहित होते हैं ।
वृत्तिवादर १० सूक्ष्मसंपराय ११ प्रशान्तमोह १२ क्षीणमोह १३ सयोगी १४ अयोगी नामक चौदह सीढ़ी अर्थात् १४ गुणस्थानक हैं I
* अभिधानचिन्तामणि देवाधिदेवकाण्ड के १३ में पृष्ठ में लिखा है:
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