Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala
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[ ४६ ] लखाण उपर ए सांप्रदायिक द्वेषमूलक होवानी शंका उत्पन्न थवानुं कारण नथी. तेओ खलं ज कहे छे, के “ आजना प्रकाशमय ऐतिहासिक क्षेत्रमा अंधकार मानी जनतानी आंखे पाटा बांधवानो अने बे विधर्मी राजाओना लेखोने पोताना धर्मना राजाना लेखो मनावी बीजानी संपत्ति स्वकीय संपत्ति मनाववानो दाक्तर साहेबे विचित्र प्रयत्न कर्यो छे ” (पृ. ५९). अलबत्त, आचार्यश्री कहे छे तेम " तेमनी मुराद पार पडी नथी एम तो जरुर कही शकाय अने एटलुं आपणुं सद्भाग्य छे एमां शंका नथी." खरी बात छे के जैनसमाजमां आवा साचा इतिहासहृदयकोविद आचार्य जागृत छे ए जैनसमाजनुं ज नहि पण गुजरातनुं सद्भाग्य छे, एम आ स्तुत्य अने अंतरना इतिहासप्रेमथी प्रेरित प्रयासने जोइने कह्या वगर रही शकता नथी.
दुर्गाशंकर के. शास्त्री.
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