Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 46
________________ प्रस्थान अपने संवत् १९९२ के आषाढ के अंक में क्या लीखता है । अशोकना शिलालेखो उपर दृष्टिपात : - लेखक : विद्यावल्लभ इतिहासतव महोदधि आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरि; प्रकाशक: श्री यशोविजय जैनग्रन्थमाला, भावनगर, इ. स. १९३६, किंमत चार आना. आ नाना पुस्तकनुं एमां साची ऐतिहासिक दृष्टि होवाने ली, अमे घणुं मूल्य आंकीए छीए. वडोदराना डॉ. त्रिभुवनदास लहेरचंद शाहे 'प्राचीन भारतवर्ष' नामनुं पुस्तक लख्युं छे, जेमां आ देशना प्राचीन इतिहासनी सर्वमान्य मान्यताओने छलप्रचुर दलीलोथी उलटाववानो ग्लानिजनक प्रयास करवामां आव्यो छे. उपला पुस्तकना लेखक आचार्य विजयेन्द्रसूरिजी साचुं ज कहे छे के " दाक्तरसाहेबनां जेवां पुस्तको बहार पाडवाथी जैनोने लाभ थवाने बदले ऊलटी हानि थवानो संभव छे " ( जुओ ' किंचिद् वक्तव्य' पृ. ३ ). मतलब के डॉ. त्रिभुवनदास शाहनी प्रवृत्ति इतिहासने तथा जैनोने हानिकारक ज छे. डॉ. त्रिभुवनदास शाहनां ' प्राचीन भारतवर्ष' नामना पुस्तकनी समालोचना करवा माटे आचार्यश्रीए असल अने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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