Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 29
________________ [ २७ ] यदि कदाचित् स्वर्ग जाने के योग्य पुण्य का बन्धन न हुआ तो जीव मनुष्यगति को प्राप्त होता है और मनुष्य पैंतालीस लाख योजन प्रमाण क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं, उसे जैनशास्त्रकार ढाई द्वीप मानते हैं। उसमें भी यदि उत्पन्न न हुआ तो तिर्यश्च पञ्चन्द्रिय की गति मिलती है । उसके बीस भेद बताये गये हैं। वे पञ्चेन्द्रिय तियश्च, जैनशास्त्रानुसार तिरछे लोक के असख्य द्वीप और समुद्रों में उत्पन्न होते हैं । यदि पञ्चेन्द्रिय की भी गति न हुई तो समझना चाहिये कि पुण्य के बदले प्रमादाचरण से पापों का बन्धन किया गया है। उस पाप के कारण से जीव को चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय की गति मिलती है । वे प्रायः ऊँचे, नीचे अथवा तिरछे लोकों में उत्पन्न होते हैं । उमसे भी अधिक जब पाप का बन्धन होता है तो नरकगति में नीव को जाना पड़ता है। नरक के सात भेद हैं; उनमें उत्तरोत्तर अधिक दुःख भोगना पड़ता है । उसके यहाँ प्रतिपादन करने में बहुत तूल होगा, इसलिये जिज्ञासुओं को चाहिये कि लोकप्रकाश और सूत्रकृताङ्ग में देख लेवें । __कर्म के बन्धन में चार कारण-मिथ्यात्व, प्रमाद, अविरति और योगनाम से कहे गये हैं । असत्य को सत्य ओर सत्य को असत्य समझना मिथ्यात्व कहलाता है । नशे की चीजें पीना और विषय का सेवन कषाय [क्रोधादि] करना, निद्रा और विकथा [कुत्सित कथा ] आदि का करना यही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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