Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 34
________________ [३२] सप्तभङ्गी, नय, नवतत्व, स्याद्वाद, गृहस्थ धर्म और साधु. धर्म तथा 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्यादि उमास्वाति वाचक के कथन को और मूर्तिपूजादि को समान मानते हैं । किन्तु दिगम्बरमतावलम्बी लोग, साधुओं और तीर्थंकरों को दिगम्बर [वस्त्ररहित ] बताते हैं और हम लोग उनको वस्त्रधारी मानते हैं। सूत्रों में दो प्रकार के साधु बताये गये हैं: एक जिनकल्पी, दूसरे स्थविरकल्पी । जिनकल्पियों के भी अनेक भेद लिखे हैं; उनमें कितनेक वस्त्ररहित बताये गये हैं। परन्तु वह मार्ग इस समय विच्छिन्न हो गया है, केवल स्थविरकल्पी मार्गही इस समय प्रचलित है। जिनकल्पी व्यवहार, पहिले मुनिलोग, क्लिष्टकर्म के क्षयार्थ स्वीकार करते थे; परन्तु उनको उस जन्म में केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता था। इस विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन पश्चवस्तुकादि ग्रन्थों में प्रतिपादन किया हुआ है। हमारे देवाधिदेवों की मूर्ति में कच्छ [ लंगोट ] का चिह्न रहता है और दिगम्बरों की मूर्ति वस्त्ररहित रहती है। दोनों पक्ष के लोग अर्हन्देव को ही ईश्वर मानते हैं । ___ अहंन्देव ने इस संसार को, द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से अनादि बताया है क्योंकि नतो जगत् का कोई कर्ता मुनिसुव्रतस्वामी २० नमिनाथ २१ नेमिनाथ २२ पार्श्वनाथ २३ महावीरस्वामी २४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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