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[ २४ ] पाँचवां आयुष्कर्म है । इसके देवायु, मनुष्यायु, नियश्चायु, नरकायु के नाम से चार मेद हैं।
छठा नामकर्म है, जिसके उदय से जीव, गति और जाति आदि पर्यायों का अनुभव करता है । इसके १०३ भेद हैं, किन्तु थोड़े समय में उनका निरूपण नहीं किया जासकता।
सातवाँ गोत्रकर्म वह है, जिसके उदय होने से नीच, उच्च गोत्र की प्राप्ति होती है ।
आठवाँ अन्तराय कर्म है; जिसके उदय होने पर जीवों के दानादि करने में अन्तराय [ विन ] होता है। इसके दानान्तराय १ लाभान्तराय २ भोगान्तराय ३ उपभोगान्तराय ४ वीर्यान्तराय ५ रूप से पाँच भेद हैं।
राग और द्वेष की परिणति से आठ कर्मों का बन्धन होता है। हमने जिनको कर्म के नाम से कहा है, इनको अन्यदर्शनकार-अदृष्ट, प्रारब्ध, संचित, दैव, प्रकृति, तथा माया के नामों से कहते हैं ।
किन्तु यह बात प्रसिद्ध है कि ऐसे गहन पदार्थों की विवेचना में जैनशास्त्रकार परम उच्चकोटी को पहुँचे हैं।
कर्म का पर्दा जबतक आत्मापर रहता है तबतक वह संसारी अथवा चार गति में फिरनेवाला माना जाता है
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