Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 25
________________ . [२३ ] हैं । समय के अत्यन्त कम होने से यहाँ उनके नाममात्र कहकर सन्तोष करना पड़ता है। ___१ चक्षुर्दर्शनावरणीय, २ अचक्षुर्दर्शनावरणीय,३ अवधिदर्शनावरणीय, ४ केवलदर्शनावरणीय, ५ निद्रा, ६ निद्रानिद्रा, ७ प्रचला, ८ प्रचलाप्रचला और ९ स्त्यानद्धिं ये उनके नाम हैं* ॥ _ वेदनीयकर्म के शातावेदनीय, अशातावेदनीय दो चौथा मोहनीयकर्म है-जिसके, चार प्रकार के क्रोध, चार प्रकार के मान, चार प्रकार की माया और चार प्रकार के लोभ; एवं हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुर्गच्छा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, ये सब मिल के अहाईस भेद हैं। * लोकप्रकाश के ५८४ पृष्ठ में लिखा हैसुखप्रबोधा निद्रा स्याद् सा च दुःखप्रबोधिका । निद्रानिद्रा प्रचला च स्थितस्योर्ध्वस्थितस्य वा ॥ १ ॥ गच्छतोऽपि जनस्य स्यात् प्रचलाप्रचलाऽभिधा । स्त्यानर्द्धिासुदेवार्द्धबलाऽहश्चिन्तितार्थकृत् ॥२॥ $ मोहयति विवेकविकलं करोति प्राणिनमिति मोहः ( मोहनीयम ). Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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