Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 23
________________ [२१] लेही कह चुके हैं । जीव और पुद्गल का संबन्ध किस रीति से हुआ इसका उत्तर जैनशास्त्रकार अनादि बतलाते हैं । वे अनादि कर्म, जीव के साथ हमेशा के लिये संबन्ध नहीं रख सकते, लेकिन उनका परावर्तन [ लौट पौट ] आत्मप्रदेश के साथ हुआ करता है । कर्मों को जीव किस तरह ग्रहण करता है । और किस रीति उनसे मुक्त होता है, इसका विस्तार कर्मग्रन्थों में स्पष्ट रीति से लिखा हुआ है। मूलकर्म एक जीव के ऊपर आठ प्रकार के होते हैं उनके नामः-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीयकर्म, मोहनीयकर्म, आयुष्कर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, अन्तरायकर्म । किन्तु इन कर्मों के उत्तर भेद तो १५८ कहे हुए हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के उत्तर पाँच भेद हैं-मतिज्ञाना ...--------...--.- - * यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि यदि कर्म का जीव के साथ अनादि सम्बन्ध है तो वह किस रीति से मुक्त हो सकता है; इसपर जैनशास्त्रकार यह उत्तर देते हैं कि जैसे स्वर्ण सोना] और मृत्तिका का अनादि संबन्ध रहनेपर मी यत्नद्वारा मुफ हो सकता है वैसेही शुभध्यानादि प्रयोग से आत्मा और कर्म का संबन्ध भी मुक्त होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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