Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 21
________________ है [ १९ ] के बिना दश प्रकार के यति [ साधु ] धर्म का निभाना महा दुर्घट है। गृहस्थ धर्म के द्वादश प्रकार ये हैं:पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, और चार शिक्षाव्रत । इन बारहों का मूल सम्यक्त्व है । पाँच अणुव्रत ये हैं; प्राणातिपातविरमण व्रत १, अर्थात् प्राणातिपात (जीवहिंसन ) से स्थूलरीत्या विराम (निवृत्ति ) होना । इसी रीति से मृषावाद ( मिथ्याभाषण ), अदत्तादान [ नही दिये हुए पदार्थों का लेना ], मैथुन (परस्त्रीसंभोग ) और परिग्रह [ विशेष वस्तुओं का संग्रह ] से स्थूलरीत्या निवृत्ति होने को, क्रम से मृषावादविरमण व्रत २, अदत्तादानविरमण व्रत ३, मैथुनविरमण व्रत ४ और परिग्रहविरमण व्रत ५ कहते हैं। ___ इन पाँच मूलव्रतों की रक्षा करने के लिये तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत माने गये हैं। उन गुणवतों और शिक्षाव्रतों के नाम क्रम से ये हैं:दिगवत १ [ अपने स्वार्थ के लिये दशो दिशाओं में जाने आने के किये हुए नियम की सीमा को उल्लङ्घन नहीं करना ]; भोगोपभोगनियम २ [ भोग जो एक बार उपयोग में लाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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