Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 19
________________ [१७ ] १ अहिंसाव्रत उसे कहते हैं, जिसमें प्रमाद अर्थात् अज्ञान, संशय, विपर्यय, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, योगदुष्प्रणिधान, धर्मानादर से, त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा [प्राणवियोग] नहीं की जाती है। २ सूनृत [सत्य व्रत, प्रिय हितकारक वाक्य को कहते हैं; न कि जिससे किसी जीवपर आघात पहुँचे, या कटु हो । ३ अस्तेय व्रत वह है, जिसमें किसी प्रकार की चोरी न हो; क्योंकि मनुष्यों के बाह्य प्राण धनही हैं उसके हरण करने से मनुष्य के प्राणही हत होते हैं । ४ ब्रह्मचर्यव्रत-देव, मनुष्य और तिर्यश्च से उत्पन्न होनेवाले १८ प्रकार के कामों से मन, वचन तथा काय से 'निवृत्त होना और करनेवालों को सहायता नहीं देना, यह कहलाता है। ___५ अपरिग्रहव्रत, सर्व पदार्थों में ममत्व बुद्धि के त्याग को कहते हैं; क्योंकि असत् पदार्थों में भी मोह होने से चित्तभ्रम होता है। मूलगुण के रक्षण के लिये उत्तरगुण [ अष्टप्रवचनमाता के नाम से व्यवहृत ] पाँच समिति और तीन गुप्ति कहलाते हैं । जिनके नाम ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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