Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 16
________________ [१४] अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणों से निश्चित किये अर्थ के अंश अथवा बहुत से अंशों को ग्रहण करे और बाकी बचे अंशों में उदासीन रहे, याने इतर का निषेध न करे, ऐमा, वक्ता का अभिप्रायविशेष, ‘नय' कहलाता है । यदि इतर अंश का उदासीन न होकर निषेध ही करे, तो नयाभाम कहा जायगा। नय के भेद-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसुत्र, शब्द, ममभिरूढ़ तथा एवंभूत रूप से सात प्रकार के हैं। उनमें १ नैगमनय वह कहलाता है, जो द्रव्य और पर्याय इन दोनों को सामान्य-विशेष-युक्त मानता हो; क्योंकि वह कहता है कि सामान्य विना विशेष नहीं होता और विशेष विना सामान्य रह नहीं सकता । २ संग्रहनय, हर एक वस्तु को सामान्यात्मक ही मानता है। क्योंकि वह कहता है कि सामान्य से भिन्न विशेष कोई पदार्थ ही नहीं है। ३ व्यवहारनय, हर एक वस्तु को विशेषात्मक ही मानता है। ४ ऋजुसूत्र, अतीत और अनागत को नहीं मानता, केवल कार्यकर्ता वर्तमान ही को मानता है । __५ शन्दनय, अनेक पर्यायों (शब्दान्तर ) से एक ही अर्थ का ग्रहण करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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