Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 12
________________ [१०] के दो प्रकार हैं-एक प्रत्यक्ष, दुसरा परोक्ष । प्रत्यक्ष में भी दो भेद हैं-एक सांव्यवहारिक और दूसरा पारमार्थिक । उसमें भी सांव्यवहारिक, इन्द्रियनिमित्तक और अनिन्द्रियनिमित्तक भेद से दो प्रकार का होता है । स्पर्श, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, इन पॉचों इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान को इन्द्रियनिमित्तक प्रत्यक्ष कहते हैं । 'मन' जिसकी जैनशास्त्रकारोंने 'नोइ. न्द्रिय' एमी संज्ञा रक्खी है उससे उत्पन्न हुए ज्ञान को अनिन्द्रियनिमित्तक प्रत्यक्ष, या मनोनिमित्तक प्रत्यक्ष कहते हैं । बौद्धों ने नेत्र और कर्ण को छोडकर बाकी इन्द्रियों को प्राप्यकारी माना है और नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक और साख्यवादी सभी इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं, किन्तु हमार जैनशास्त्र में नेत्र इन्द्रिय को छोडकर अन्य सभी इन्द्रियों को प्राप्यकारी माना है। इस बात का वर्णन रत्नाकरावतारिका वगैरह ग्रन्थों में अतिविस्तारपूर्वक युक्तियुक्त किया हुआ है, परन्तु यहां थोड़े श्लोकों की व्याख्या करके जैनदर्शन के मन्तव्य का दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है। * रत्नाकरावतारिका के पृष्ठ ९१ में लिखा हुआ है: चक्षुरप्राप्यधीकृत व्यवधिमतोऽपि प्रकाशकं यस्मान् ! अन्तःकरणं यद्वद्व्यतिरेके स्यात् पुना रसना ॥ ६८ ॥ अथ द्रुमादिव्यवधानभानः प्रकाशकत्वं ददृशे न दृष्टौ । ततोऽप्ययं हेतुरसिद्धतायां धौरेयभावं बिभराम्बभूव ॥६९।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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