Book Title: Jain Tattva Digdarshan Author(s): Vijaydharmsuri Publisher: Yashovijay Jain Granthmala View full book textPage 4
________________ [२] के सिवाय और क्या कहा जासकता है ? । लेकिन फिरभी भारतभूमि के अभ्युदय की अन्तःकरण से इच्छाकरनेवाले पुरुषसिंहो की सहायता में अपना कल्याण समझकर किश्चिन्मात्र (थोडामा) जैनतत्त्व आपलोगों के मामने उपस्थित करता हूँ जैन सिद्धान्त में चार अनुयोग ( कथन ) हैं । १ द्रव्यानुयोग, २ गणितानुयोग, ३ चरणकरणानुयोग, ४ धर्मकथानुयोग । इन चारों अनुयोगों की आवश्यकता प्राणियों के कल्याणार्थ तीर्थंकरोंने कही है। (१) द्रव्यानुयोग याने द्रव्य की व्याख्या । द्रव्य के छ भेद हैं, जिनका जैनशास्त्र में पइ द्रव्य के नाम से व्यवहार होता है। उनके नाम ये है:-जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल | १ जीवास्तिकाय का लक्षण यह है:“यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षणः” ॥१॥ कर्मों को करनेवाला, कर्म के फल को भोगनेवाला, किये हुए कर्म के अनुसार शुभाशुभ गति में जानेवाला और सम्यग्ज्ञानादि के वश से कर्मसमूह को नाशकरनेवाला आत्मा याने जीव है। जीव का इससे पृथक और दसरा कोई स्वरूप नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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