Book Title: Jain Tattva Digdarshan Author(s): Vijaydharmsuri Publisher: Yashovijay Jain Granthmala View full book textPage 3
________________ ॥ अर्हम् ॥ जैनतत्त्व-दिग्दर्शन. स्याद्वादो वर्त्तते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यपीडनं किञ्चित् जैनधर्मः स उच्यते ॥ १ ॥ सज्जनमहाशय ! जैनदर्शन की अनेकान्तवाद, स्याद्वादमत, आर्हतदर्शन आदि नामों से संसार में प्रसिद्धि है और इन्हीं नामों से षड्दर्शनानुयायी लोग व्यवहार में लाते हैं । उस जैनदर्शन का तत्व सामान्य रीति से दिग्दर्शनमात्र यहाँ पर कराया जासकता है; क्योंकि कहना विशेष है और समय बहुत ही थोड़ा है । जब कि जैनधर्माचार्यों ने, तीक्ष्णबुद्धि और दीर्घायु, तथा समस्त शास्त्र में प्रवीण होनेपर भी स्पष्ट रूप से कहा कि ' हमलोग स्वल्प बुद्धिवाले, स्वल्प आयु होनेके कारण; अनन्त, अतिगम्भीरस्वरूप ज्ञेय ( तत्र ) को यथार्थ नहीं कह सकते ; तो अत्यन्त अल्पबुद्धिवाले अत्यल्प समय में अतिगहन विषय की मीमांसा करना हमलोगों का साहसमात्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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