Book Title: Jain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ प्राक्कथन प्रस्तुत पुस्तक या शोधप्रबन्धके लेखक डा० दरबारीलाल कोठिया जैन दर्शनके जाने-माने विद्वान् हैं, उनका भारतके दूसरे दर्शनोंसे भी अच्छा परिचय है। अब तक वे मुख्यतया जैनदर्शन एवं धर्म सम्बन्धी अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन एवं अनुवाद कर चुके है । प्रस्तुत पुस्तकका विषय तर्कशास्त्रसे सम्बन्ध रखता है । भारतीय दर्शनमें ज्ञानमीमांसाका, और उसके अन्तर्गत प्रमाणमीमांसाका, विशेष स्थान रहा है। प्रमाणविचारके अन्तर्गत यहाँ अन्वेषण-पद्धतियोंपर उतना विचार नहीं हुआ जितना कि प्रमा अथवा यथार्थज्ञानके स्रोतोंपर । इन स्रोतोंको प्रमाणसंज्ञा दी गयी। प्रमाणाम भी प्रत्यक्ष और अनुमान सर्वस्वीकृत है और उनपर विभिन्न सम्प्रदायोंके दार्शनिकोंने विशेष विमर्श किया है । कुछ विद्वानोंने भारतीय अनुमान और अरस्तूके सिलासिजममें समानता देखनेका प्रयास किया है, किन्तु वस्तुतः इन दोनोंमें बहुत अंतर है। 'भारतीय न्याय' अथवा 'पंचावयववाक्य' बाहरसे अरस्तु के सिलामिजमके समान दिखता है; यह सही है, किन्तु अपनी अन्तरंग प्रक्रियामें दोनोंके आधार भिन्न हैं। भारतीय अनुमानकी मूल भित्ति हेतु और साध्यका सम्बन्ध है, जिसे व्याप्ति कहते हैं। हमारे तर्कशास्त्रियोंने हेतुके विविध रूपोंपर विस्तृत विचार किया है। इसके विपरीत अरस्तूके अनुमानकी मूल भित्ति वर्गसमावेशका सिद्धान्त है । अरस्तूने सिलासिजमके १९ प्रामाणिक रूप ( मूड ) माने हैं, और ४ अवयवसंस्थान, जिनमें विभिन्न अनुमानरूपोंको व्यवस्थित किया जाता है । इन सबको देखते हुए भारतीय अनुमानका स्वरूप बहुत संक्षिप्त एवं सरल जान पड़ता है। भारतीय तर्कशास्त्रियोंने अपना ध्यान मुख्यतः हेतुके स्वरूप एवं विविधतापर संसक्त किया। चूंकि भारतीय दार्शनिकोंके सामने चिन्तन और अन्वेपणके वे अनेक तरीके उपस्थित नहीं थे, जिनसे विविध विज्ञानोंने हमें परिचित बनाया है, इसलिए वे अनुमानप्रक्रियापर बड़े मनोयोगसे विचार कर सके। हमारे देशके अनेक विचारक कई दूसरे प्रमाणोंको भी मानते हैं, जैसे अर्धापत्ति और अनुपलब्धि । बौद्ध तर्कशास्त्री धर्मकोतिने बड़ी चतुराईसे शेप प्रमाणोंका अन्तर्भाव अनुमानमें करनेकी कोशिश की है । भारतीय तर्कशास्त्रमें जिस चीजका अभाव सबसे ज्यादा खटकता है वह हैप्राक्कल्पना ( हाइपाथेसिस ! की धारणाकी अनवगति या अपर्याप्त अवगति । यों व्याप्तिग्रहके साधनोंपर विचार करते हुए वे आगमनात्मक चिन्तनके अनेक तत्त्वोंपर प्रकाश डाल सके थे। योरोपीय तर्कशास्त्रमें प्राक्कल्पनाका महत्त्व धीरे-धीरे हो स्वीकृत हुआ है । न्यूटन प्राक्कल्पनाओंको शंकाकी दृष्टिसे देखता था। किन्तु

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