Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 8
________________ तेषी यदि जीव इच्छतो, निर्मोहता निज आत्मने । जिनमार्ग यी द्रव्योमहीं ,जाणोस्व परने गुरम बड़े ॥१०सार।। तातं जिनवर-कथित तस्व अभ्यास करोजे । सशय विभ्रम् मोहल्याग, पापो लख लीजे । तास ज्ञान का कारण, स्वपर विवेक बखानो कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनौ। लाख बात की बात यही निश्चय उर लामो तोरि सकलजग बंद-फंद, नित प्रातमध्याओछ: ढाला। देखो तत्त्व विचार की महिमा।। तत्व विचार रहित देवादिक की प्रतीति करे, बहुत शास्त्रों का अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नही, और तत्व विचारवाला इनके बिना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है । .. "इसलिए इसका तो कर्त्तव्य तत्त्व निर्णय का अभ्याम ही है. इसीसे दर्शन मोह का उपशम तो स्वयमेव होता है, उनमें जीव का कर्तव्य कुछ नहीं' [प्राचार्य कल्प पडित श्री टोडरमल जी मोक्ष मार्ग प्रकाशक] जिन, जिनवर और जिनवर वृषभ द्वारा द्रव्य गुण पर्याय का सूक्ष्म रीति से अभ्यास ही सच्ची धर्म प्रभावना है प्रत्येक भव्य जीव इसका सच्ची दृष्टि से अभ्यास कर मिथ्यात्व का अभाव कर, सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर, कम से मोक्ष का पयिक बने । इस बात को ध्यान में रखकर प्रश्नोत्तर के रुप में द्रव्य गुण पर्याय का क्रम से वर्णन किया जाता है। जिनमत मे तो ऐसी परिपाटी है कि प्रथम सम्यवत्व और फिर वतादि होते हैं । सम्यक्त्व तो स्व-पर का श्रद्धान होने पर होता है, तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास करने से होता है इसलिए प्रथम द्रव्य गुण पर्याय का अभ्यास करके सम्यग्दृष्टि बनना प्रत्येक भव्य जीव का परम कर्तव्य है।

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