Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 12
________________ जैन साहित्य संशोधक [ खंड २ हैं, जिनमें योगशास्त्रकी तरह सांगोपांग योगप्रक्रियाका वर्णन है । अथवा यह कहना चाहिये कि ऋग्वेदमें जो परमात्मचिन्तन अंकुरायमाण था वही उपनिषदोंमें पल्लवित-पुष्पित हो कर नाना शाखा-प्रशाखाओंके साथ फल अवस्थाको प्राप्त हुवा । इससे उपनिषदकालमें योगमार्गका पुष्टरूपमें पाया जाना स्वाभाविक ही है। उपनिषदोंमें जगत, जवि और परमात्मसम्बन्धी जो तात्त्विक विचार है, उसको भिन्न भिन्न ऋषियोंने अपनी दृष्टि से सूत्रोंमें ग्रथित किया, और इस तरह उस विचारको दर्शनका रूप मिला। सभी दर्शनकारोंका आखिरी उद्देश मोक्ष* ही रहा है, इससे उन्होंने अपनी अपनी दृष्टिसे तत्त्वविचार करनेके बाद भी संसारसे छुट कर मोक्ष पानेके साधनोंका निर्देश किया है। तत्त्वविचारणामें मतभेद हो सकता है, पर आचरण यानी चारित्र एक ऐसी वस्तु है जिसमें सभी विचारशील एकमत हो जाते हैं । विना चारीत्रका तत्त्वज्ञान कोरी बातें हैं। चारित्र यह योगका किंवा योगांगोंका संक्षिप्त नाम है । अत एव सभी दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्रग्रंथोंमें साधन रूपसे योगकी उपयोगिता अवश्य बतलाई है। यहां तक कि-न्यायदर्शन, जिसमें प्रमाण पद्धतिका ही विचार मुख्य है,उसमें भी महर्षि गौतमने योगको स्थान दिया है।। महर्षि कणादने तो अपने वैशेषिक दर्शनमें यम, नियम, शौच आदि योगांगाका भी महत्त्व गाया है। सांख्यसूत्रमें योगप्रक्रियाके वर्णनवाले कई सूत्र हैं। ब्रह्मसूत्रमें महर्षि बादरायणने तो तीसरे अध्यायका नाम ही साधन अध्याय रक्खा है, और उसमें आसन ध्यान आदि योगांगोंका वर्णन किया है4। योगदर्शन तो मुख्यतया योगविचारका ही ग्रन्थ ठहरा, अत एव उसमें सांगोपांग योगप्रक्रियाकी मीमांसाका पाया जाना सहज ही है। योगके स्वरूपके सम्बन्धमें मतभेद न होनेके कारण और उसके प्रतिपादनका उत्तरदायित्व खासकर योगदर्शनके उपर होनेके कारण अन्य दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्र ग्रन्थोंमें थोडासा योगविचार करके विशेष जानकारकेि लिये जिज्ञासुओंको योगदर्शन देखनेकी सूचना दे दी है51 पूर्वमीमांसामें महर्षि जैमिनिने योगका निर्देश तक नहीं किया है सो ठीक ही है, क्यों कि उसमें सकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूम-मार्गकी ही मीमांसा है । कर्मकाण्डकी पहुंच 8 ब्रह्मविद्योपनिषद् , क्षुरिकोपनिषद्, चूलिकोपनिषद्, नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु, योगशिखा, योगतत्त्व, हंस इत्यादि । देखो झुसेनकृत-Philosphy of the Upanishads . *-प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः। गौ० सू० १, १,१॥-धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसम् ॥ वै० सू० १, १, ४॥ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः। सां. द० १,१॥-पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति। यो• सू० ४, ३३ ॥-अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् । ब्र. सू. ४, ४,२२ ।-सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थ सू० १-१ जैन० द० ।-बौद्ध दर्शनका तीसरा निरोध नामक आर्यसत्य ही मोक्ष है। 1 समाधिविशेषाभ्यासात् ४-२-३८ । अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः ४-२-४२ । तदर्थ यमनियमाभ्यासात्मसंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः ४-२-४६ ॥ 2 अभिषेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयज्ञदानप्रोक्षणदिनक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चादृष्टाय । ६-२ -२ । अयतस्य शुचिभोजनादभ्युदयो न विद्यते, नियमाभावाद्, विद्यते. वाऽर्थान्तरत्वाद् यमस्य । ६-२-८ । 3 रागोपहतिर्ध्यानम् ३-३० । वृत्तिनिरोधात् तत्सिद्धिः ३-३१ । धारणासनस्वकर्मणा तसिद्धिः ३-३२ । निरोधश्छर्दिविधारणाभ्याम् ३-३३ । स्थिरसुखमासनम् ३-३४। 4 आसीनः संभवात् ४-१-७ । ध्यानाच्च ४-१-८ । अचलत्वं चापेक्ष्य ४-१-९। स्मरन्ति च ४-१-१०। यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ४-१-११। 5 योगशास्त्राचाध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः । न्यायदर्शन ४-२-४६ भाष्य ।

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