Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 69
________________ X अक १] महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण परिशिष्ट नं. १ (आदिपुराण के प्रारंभ का कुछ अंश ।) ओं नमो वतिरागाय । सिद्धिवर्मणरंजणु परमनिरंजणु भुषणकमलसरणेसरु । पणवेवि विग्धविणासणु निरुवमसासणु रिसहणाहपरमेसरु॥ ध्रुवकम् ॥ तं कहमि पुराणु पसिद्धणामु, सिद्धत्यवरिसे भुवणाहिरामु । उवद्धज्जड भूभंगभीस, तोडेप्पिण चोडहो तणउं सीस ॥१॥ भुवणेकराम रायाहिराउ, जहिं अच्छा तुडिणू महाणुभाउ । तं (बं?) दीण दिण्ण घणकणयपयरु, महिपरिभमंत मेवाडिणयरु ॥२॥ अवहेरिय खलयणु गुणमहंतु, दियहेहिं पराइउ पुप्फयंतु । दुग्गमदीहरपंथेणरीd, णव इंदु जेम देहेण खीणु ॥ ३॥ तरुकुसुमरेणुरंजियसमीर, मायंदगुंछ गुंदलियकीर । णंदणवणे किर वोसमइ जाम, तहिं विण्णि पुरिस संपत्त ताम ॥ ४॥ पणवेप्पिणु तेहिं पवुत्त एव, भो खण्डै गलिय पावावलेव । परिभमिरभमररवगुमुगुमंत, किं किर णिवसहि णिज्जणवणंत ॥ ५ ॥ करिसरबहिरिय दिश्चकैघाले, पइसरहिण किं पुरवरविसाले। तं सुणेवि भणई अहिमाणमेरु, बरि खज्जउ गिरकंदरकसेरु ॥६॥ णउ दुजणभउंहा वंकियांई, दसिंतु कलुसभावंकियाई ॥ पत्ता । वरु णरवरु धवलच्छिह, होउ मकुच्छिह, मरउ सोणिमुहणिग्गमे । खलकुच्छियपहुवयणई, भिउडियणयणई, म णिहालउ सूरुम्गमे ॥ ७ ॥ चमराणिलउड्डावियगुणाएं, अहिसेयधोयसुयणतणाएं । भावार्थ-इस प्रसिद्ध पुराणको मैं सिद्धार्थ संवत्सर में कहता हूं जब राजाधिराज भुवनैकराम तुडिगुने चोड राजा का सुन्दर जटायुक्त और भ्रकुटि भंगिसे भीषण मस्तक काटा ॥ १ ॥ उन्हों ने दीन दुखियों को प्रचुर धन दिया । इसी समय पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए और खलजनों द्वारा अपमानित हुए पुष्पदन्त कवि मेवाडि या मेलाटी नगरी में आये । दुर्गम और लम्बा रास्ता तय करते करते उनका शरीर नवीन चन्द्रमा के समान क्षीण हो गया था। २-३॥ वे नन्दन वन नामक उद्यान में विश्राम ले रहे थे जहां का वायु पुष्यों के पराग से महक रहा था और आम्रवृक्षों पर शुकों के झुण्ड क्रीडा कर रहे थे। इतने में ही वहां दो पुरुष पहुंचे ॥ ४ ॥ उन्होंने प्रणाम करके कहा कि हे निष्पाप खंडकवि, आप इस निर्जन वन में जो भ्रमरों के गुंजार से गूंज रहा है क्यों ठहरे हैं ? हाथियों के शब्दों से दिशाओं को बधिर करनवाले इस विशाल नगर में क्यों नहीं चलते ? यह सुन कर आभिमानमेरु पुष्पदन्तने कहा कि गिरिकन्दराओं के जंगली फल खा लेना अच्छा, परन्तु दुर्जनों की कलुषित टेढी भोंहें देखना अच्छा नहीं ॥ ५-६ ॥ उज्ज्वल नेत्रोंवाली माता की कूख से जन्म लेते ही मर जाना अच्छा परन्तु प्रभु के दुष्ट वचन और भ्रकुटित नयन सवेरे सवेरे देखना अच्छा नहीं ॥ ५॥ वह लक्ष्मी किस मतलब की जिसने दुरते हुए चैवरों की हवा से सारे गुणों को उड़ा दिया हो, आभिषेक के जल १सिद्धार्थ संवत्सरे । २ विरुदः। ३ कुष्णराजः । ४ दुर्गमदीर्घतराकाशमार्गेणागतः। ५ मन्दतेजः। ६ मिलित ७ पुष्पदन्तः। ८ हस्तिशब्दात् । दिक्चवक्रवलये।

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