Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 75
________________ अंक १ महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण ७१ भणु भणु भणियउं सयलु पडिच्छेमि, हउ कयपंजलियरु श्रोहच्छमि ॥ ११ ॥ घवा । श्रधिरेण असारे जीविपण, किं श्रप्पड सम्मोहाई । तु सिद्ध वाणीधे अहे, गवरसखीरु ण दोहाई ॥ १० ॥ तं सोप्प दर विहसंतें मित्तमुहारविंदु जोयते । कसणसरीरें सुद्धकुरुर्वे, मुद्धापविगष्मि संभूर्वे ॥ ११ ॥ कासव गोते केसव पुते, कर कुलतिलएं सरसयगिलपं । उत्तमसन्ते, जिणापयभन्ते ॥ १२ ॥ (१) पुष्यंत कणा पडिउत्तर, भो भो भरह शिसुणि गित्तक्खुत्त । कलिमलमलिणु कालु विवरेरउँ, णिग्धिणु गिम्गुण दुरायगारउ || १३ ॥ जो जो दीसह सो सो दुज्जणु, गिप्फलु गीरसु गं सुक्कउ वणु । उराउ णं संझ केरउ, अत्थे पयट्टर मणु ण महार उ । उव्वे से वित्थरह गिरारिड, एकु वि पैड विरएव भारिउ || १४ || घत्ता । दोसे होउ तं गुड भगमि चोज्ज अवरुमणे थक्कउ । जए चावि चौउजिह तिह गुणेण सहयंकर ॥ जयवि तो वि जिगमुणगणु वराणमि, कि हूं पई अब्भत्थिउ श्रवगण्णामि । कोई अपराध बन पडा है अथवा और किसी रस का उमाह हुआ है अर्थात् कोई दूसरा काव्य बनाने की इच्छा हुईं है ? बोलो, बोलो, मैं हाथ जोड कर तुम्हारे सामने खडा हूँ, तुम जो कुछ कहोगे मैं सब कुछ देने के लिए तैयार हूं ॥ ९ ॥ इस अस्थिर और असार जीवन से तुम क्यों आप को सम्मोहित कर रहे हो ? तुम्हें वाणीरूप कामधेनु सिद्ध हो गई है, उस से तुम नवरसरूप दूध क्यों नहीं दोहते ? ॥ १० ॥ यह सुनकर मुसकराते हुए और अपने मित्र के मुखकमल की, ओर निहारते हुए कुशशरीर, अतिशय कुरूप, मुग्धादेवी और केशव ब्राह्मण के पुत्र, काश्यपगोत्रीय, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय, दृढव्रत और जिनपदभक्त पुष्पदन्त कवि ने प्रत्युत्तर दिया कि, हे भरत, यह निश्चय है कि इस कलिमलमलिन, निर्दय, निर्गुण और दुनतिपूर्ण विपरीत काल में जो जो दिखते हैं सो सब दुर्जन हैं, सब सूखे हुए वन के समान निष्फल और नीरस हैं। राजा लोग सन्ध्याकाल की लालिमा के सदृश हैं । इस लिए मेरा मन अर्थ में अर्थात् काव्य रचना में प्रवृत्त नहीं होता है। इस समय मुझे जो उद्वेग हो गया है, उस से एक पद बनाना भी मेरे लिए भारी हो गया है ॥ ११-१४ ॥ यह जगत यदि दोष से वक्र होता तो मेरे मन में आश्चर्य नहीं होता किन्तु यह तो चढ़ाये हुए चाप ( धनुष सदृश गुण से भी वक्र होता है ( धनुष की डोरी 'गुण' कहलाती है । धनुष गुण या डोरी चढ़ा ने से टेडा होता ) ॥ १५ ॥ यद्यपि जगत की यह दशा है तो भी मैं जिन गुणवर्णन करूंगा । तुम मेरी अभ्यर्थना करते हो, तब मैं तुम्हारी अवगणना कैसे कर सकता हूं ? तुम त्याग भोग और भावोद्गम शक्ति से और निरन्तर की जानेवाली कविमैत्री से २१ सर्वे प्रतीच्छामि । २२ एष तिष्ठामि । २३ तव सिद्धायाः । १ भरतस्य । इ सुष्ठु कुरूपेण । ३ मुग्धादेवी । ४ वाणीनिलयेन मन्दिरेण । ५ सत्वेन दृढव्रतेन । ६ निश्चितं । ७ विपरीतः । ८ शुष्कवनमिव जनः । ९ राजा सन्ध्यारागसदृशः । १० शब्दार्थे न प्रवर्तते । ११ एकमपि पदं रचितुं भारो महान् । १२ दोषेण सह जगत् चेत् वकं भवति तदाश्वये न, किन्तु गुणेनापि सह वक्रं तदाश्चर्यमचिते । १३ चापः ।

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