Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 70
________________ जैन साहित्य संशोधक (खण्ड २ अविवेयएं दप्पुत्तालियाएं, मोहंधयाएं मारणसीलयाएं ॥८॥ सत्तंगरजभरभारियाएं, पिउपुत्तरमणरसयारियाएं । विससहजम्मएं जडरत्तियाएं, किं लच्छिए विउसविरत्तियाएं ॥४॥ संपइ जणु णीरसु णिव्विसेसु, गुणवंतउ जहिं सुरगुरुवि देस। तहिं अम्हहं लइ काणणु जे सरणु, अहिमाणे सहूं वरि होउ मरणु ॥ १० ॥ अम्मइय इंदरापहि तेहिं, आयरिणय तं पहसिय मुहहिं । गुरुविणयपणयपणवियसिरेहिं, पडिषयणु दिण्णु णायरणरोहिं ॥११॥ घत्ता । जणमणतिमिरोसारण, मयतरुवारण, णियकुलगयणदिवायर । भो भो केसवतगुरुह, णवसररुहमुह, कव्वरयणरयणायर ॥१२॥ बंभंडमंडवारूढकित्ति, अणवरय रहय जिणणाहभत्ति । सुहतुंगदवकमकमलभसलु, गीसेसकलाविएणाणकुसलु ॥ १३॥ पाययकइकव्व रसावलुदु, संपीय सरासइसुराहिदुधु। कमलच्छु अमच्छरु सञ्चसंधु, रणभरधुरधरणुग्घिटखंधु ॥१४॥ सविलासविलासिणिहियय येणु, सुपसिद्ध महाकइकामधेणु । काणीणदीणपरिपूरियासु, जसपसरपसाहियदसदिसासु ॥१५॥ पररमणिपरम्मुह सुद्धसीलु, उण्णयमइ सुयाद्धरणलीलु । · गुरुयणपयपणवियउत्तमंगु, सिरिदेविधवगम्भुब्भवंगु ॥१६॥ अण्णइयतण तणुरुहु पसत्थु, हत्थिवदाणोल्लियदीहहत्थु । महमत्तवं सधयवडु गहीरु, लक्खणलक्खकिय वरसरीरु ॥ १७॥ से सुजनता को धो डाला हो, अविवेक से दर्प को बढ़ाया हो, जो मोहसे अन्धी हो, मारणशील हो, सप्तांग राज्य के भार से लदी हुई हो, पिता और पुत्र दोनों में रमण करनेवाली (घृणितव्याभचारिणी) हो, विषके साथ जिसका जन्म हुआ हो, जो जड़ ( या जल) में रक्त हो, और जो विद्वानों से विरत रहती हो ॥८-९॥ इस समय लोग नीरस और विशेषतारहित हो गये हैं। अब तो गुणवन्त बृहस्पति का भी द्वेष किया जाता है। इसी लिए मैंने इस वन का शरण लिया है । मैंने सोचा है कि इस तरह अभिमान के साथ मर जाना भी अच्छा है ॥१०॥ कवि के ये वचन सुनकर उन दो आगत नागरिकोंने-अम्मइय (?) और इन्द्रराजने-प्रसन्न मुख से और बड़े विनय से मस्तक झुकाकर कहा-“हे मनुष्यों के हृदयान्धकार को दूर करनेवाले, नवीन कमलसदृश मुखवाले, मदरहित, अपने कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा, काव्यरत्नरत्नाकर, और केशव के पुत्र पुष्पदन्तजी, क्या आपने भरत ( मंत्री) का नाम नहीं सुना ? जिस की कीर्ति ब्रम्हाण्डरूपमण्डपपर आरूढ हो रही है, जो निरन्तर जिन भगवान की भक्ति में अनुरक्त रहता है, शुभतुंगदेव ( राजा और इस नाम का मन्दिर ) के चरणकमलों का भ्रमर है, सारी कला और विद्याओं में कुशल है, प्राकृत कवियों के काव्यरसपर लुब्ध रहता है और जिसने सरस्वतीरूप सुराभि का खूब दूध पिया है, लक्ष्मी जिसे चाहती है, जो मत्सर रहित है, सत्यप्रतिज्ञ है, युद्धों के बोझे को ढोते ढोते जिस के कन्धे घिस गये हैं, जो विलासवती सुन्दरियों के हृदय का चुरानेवाला है, बड़े बंड़ प्रसिद्ध महाकवियों के लिए कामधेनु है, दीन दुखियाओं की आशाओं को पूरा करनेवाला है, जिस के यश ने दशों दिशाओं को जीत लिया है, जो परास्त्रियों की ओर कभी नजर नहीं उठाता, शुद्ध शीलयुक्त है, जिस की मति उन्नत है, लीला मात्र से जो सुजनों का उद्धार कर देता है, गुरुजनों के चरणोंपर जिस का मस्तक सदैव झुका रहता है, जो श्रीदेवी माता और अण्णय पिता का पुत्र है, जिस के हाथ हाथी के समान दान (या मदजल) से आई रहते हैं, जो महामात्यवंशका ध्वजपट है, गंभीर है, जिस का शरीर शुभ लक्षणों से युक्त है और जो दुर्व्यसनरूपी सिंहों के लिए जो अष्टापद के समान है ॥११-१७ ॥ आइए, उसके नेत्रों

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