Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 19
________________ अंक ] योगदान मौजुद थे या रचे जाते थे। इस योगशास्त्रके ऊपर अनेक छोटे बडे टीका ग्रन्थी हैं, पर व्यासकृत भाष्य और वाचस्पतिकृत टीकासे उसकी उपादेयता बहुत बढ़ गई है। सब दर्शनोंके अन्तिम साध्यके सम्बन्धमें विचार किया जाय तो उसके दो पक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम पक्षका अन्तिम साध्य शाश्वत सुख नहीं है । उसका मानना है कि मुक्तिमें शाश्वत सुख नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, उसमें जो कुछ है वह दुःखकी आत्यान्तक निवृत्ति ही । दुसरा पक्ष शाश्वतिक सुखलाभको ही मोक्ष कहता है। ऐसा मोक्ष हो जानेपर दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति आप ही आप हो जाती है। वैशेषिक नेयायिक2, सांख्य3, योग4, और बौद्धदर्शन प्रथम पक्षके अनुगामी हैं । वेदान्त और जैनदर्शना, दूसरे पक्षके अनुगामी है। योगशास्त्रका विषय-विभाग उसके अन्तिमसाध्यानुसार ही है। उसमें गौण मुख्य रूपसे अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित हैं, पर उन सबका संक्षेपमें वर्गीकरण किया जाय तो उसके चार विभाग हो जाते हैं । १ हेय, २ हेय-हेतु, ३ हान, ४ हानोपाय । यह वर्गीकरण खयं सूत्रकारने किया है; और इससे भाष्यकारने योगशास्त्रको चतुर्दूहात्मक कहा है8। सांख्यसूत्रमें भी यही वर्गीकरण है। बुद्ध भगवारने इसी चतुर्दूहको आर्य सत्य नामसे प्रसिद्ध किया है; और योगशास्त्रके आठ योगाङ्गोंकी तरह उन्होंने चौथे आर्य-सत्यके साधनरूपसे आर्य अष्टाङ्गमार्गका उपदेश किया है। दुःख हेय है10, अक्द्यिा हेयका कारण है11, दुःखका आत्यन्तिक नाश हान है12, और विवेक-ख्याति हानका उपाय है13। उक्त वर्गीकरणकी अपेक्षा दूसरी गीतसे भी योगशास्त्रका विषय-विभाग किया जा सकता है। जिससे कि उसके मन्तव्योंका ज्ञान विशेष स्पष्ट हो। यह विभाग इस प्रकार है-१ हाता, २ ईश्वर, ३ जगत् , ४ संसारमोक्षका स्वरूप, और उसके कारण । १. हाता दुःखसे छुटकारा पानेवाले द्रष्टा अर्थात् चेतनका नाम है। योग-शास्त्र में सांख्य14 1 व्यास कृत भाष्य, वाचस्पतिकृत तत्त्ववैशारदी टीका, भोजदेवकृत राजमार्तड, नागोजीभट्ट कृत वृत्ति, विज्ञानाभिक्षु कृत वार्तिक, योगचन्द्रिका, मणिप्रभा, भावागणेशीय वृत्ति, बालरामोदासीन कृत टिप्पण आदि । 2" तदत्यन्तविमोशोऽपवर्गः " न्यायदर्शन १-१-२२ । 3 ईश्वरकृष्णकारिका १ । 4 उसमें हानतत्व मान कर दुःखके आत्यन्तिक नाशको ही हान कहा है। 5 बुद्ध भगवानके तीसरे निरोध नामक आर्यसत्यका मतलब दुःख नाशते है। 6 वेदान्त दर्शनमें ब्रह्मको सच्चिदानंदस्वरूप माना है, इसीलिये उसमें नित्यसुखकी अभिव्याक्तिका नाम हि मोक्ष है। 7 जैन दर्शनमें भी आत्माको सुखस्वरूप माना है, इसलिये मोक्षमें स्वाभविक सुखकी अभिव्यक्ति ही उस दर्शनको मान्य है। 8 यथा चिकित्साशास्रं चतुव्यूहम्-रोगो रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यमिति, एवमिदमपि शास्रं चतु हमेव । तद्यथा-संसारः संसारहेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखबहुलः संसारो हेयः । प्रधानपुरुषयोः संयोगो हेयहेतुः । संयोगस्यात्यन्तिकी निवृत्तिनम् । हानोपायः सम्यग्दर्शनम् । पा. २ सू० १५ भाष्य । 9 सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । बुद्धलीलासार संग्रह. पृ. १६० । 10 " दुःखं हेयमानागतम् " २-१६ यो. सू। 11 " द्रष्ट्रहश्ययोः संयोगो हेयहेतुः २-१७ । " तस्य हेतुरविद्या"२-२४ यो. सू. । 12 " तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशेः कैवल्यम् ” २०-२६ यो. सू । 13 " विवेकख्यातिरविप्लषा हानोपायः " २-२६. यो. सू । 14 " पुरुषबहुत्वं सिद्ध " ईश्वरकृष्णकारिका- १८ ।

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