Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 46
________________ ४२] जैन साहित्य संशोधक [खं२ उद्धृत्य शास्त्रजलधोनतले निमग्नः - पर्यागतैरिव चिरादभिधानरत्नैः । या सोमदेवविदुषा पिहिता विभूषा वाग्देवता वाहतु सम्प्रति तामनर्धाम् ॥-पं. आ०, पृ. २६६ । चिरकालसे शास्त्रसमुद्रके बिल्कुल नीचे डूबे हुए शब्द-रत्नोंका उद्धार करके सोमदेव पण्डितने जो यह बहुमूल्य आभूषण (काव्य ) बनाया है, उसे श्रीसरस्वती देवी धारण करें। इन उक्तियोंसे इस बातका आभास मिलता है कि आचार्य सोमदेव किस श्रेणीके कवि थे और उनका उक्त महाकाव्य कितना महत्त्वपूर्ण है। पूर्वोक्त उक्तियोंमें अभिमानकी मात्रा विशेष रहने पर भी वे अनेक अंशोंमें सत्य जान पड़ती हैं । सचमुच ही यशस्तिलक शब्दरत्नोंका बड़ा भारी खजाना है और यदि माघकाव्यके समान कहा जाय कि इस काव्यको पढ़ लेने पर फिर कोई नया शब्द नहीं रह जाता, तो कुछ अत्युक्ति न होगी। इसी तरह इसके द्वारा सभी विषयोंकी व्युत्पत्ति हो सकती है। व्यवहारदक्षता बढानेकी तो इसमें ढेर सामग्री है। महाकवि सोमदेवके वाक्कल्लोलपयोनिधि, कविराजकुंजर और गद्यपद्याविद्याधरचक्रवर्ती विशेषण, उनके श्रेष्ठकवि. स्वके ही परिचायक हैं। धर्माचार्य सोमदेव। यद्यपि अभीतक सोमदेवसरिका कोई स्वतंत्र धार्मिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। परन्तु यशस्तिलकके अन्तिम दो आश्वास-जिनमें उपासकाध्ययन या श्रावकों के आचारका निरूपण किया गया है-इस बातके साक्षी हैं कि वे धर्मके कैसे मर्मज्ञ विद्वान थे। स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डके बाद श्रावकोंका आचारशास्त्र ऐसी उत्तमता, स्वाधीनता और मार्मिकताके साथ इतने विस्तृतरूपमें आजतक किसी भी विद्वान्की कलमसे नहीं लिखा गया है। जो लोग यह समझते हैं कि धर्मग्रन्थ तो परम्परासे चले आये हुए प्रन्थों के अनुवादमात्र होते हैं--उनमें ग्रन्थकर्ता विशेष क्या कहेगा, उन्हें यह उपासकाध्ययन अवश्य पढ़ना चाहिए और देखना चाहिए कि धर्मशास्त्रोंमें भी मौलिकता और प्रतिभाके लिए कितना विस्तृत क्षेत्र है । खेद है कि जैनसमाजमें इस महत्त्वपूर्ण प्रन्धके पठन पाठनका प्रचार बहुत ही कम है और अब तक इसका कोई हिन्दी अनुवाद भी नहीं हुआ है। नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें लिखा है: सकलसमयत नाकलंकोऽसि धादिन न भवसि समयोक्तौ हंससिद्धान्तदेवः। न च वचनविलासे पूज्यपादोऽसि तत्त्वं वदसि कथमिदानीं सोमदेवेन सार्धम॥ अर्थात् हे वादी, न तो तु समस्तदर्शन शास्त्रों पर तर्क करनेके लिए अकलंकदेवके तुल्य है, न जैनसिद्धान्तको कहनेके लिए हंससिद्धान्तदेव है और न व्याकरणमें पूज्यपाद है, फिर इस समय सोमदेवके साथ किस बिरते पर बात करने चला है ?* इस उक्तिसे स्पष्ट है कि सोमदेवसरि तर्क और सिद्धान्तके समान व्याकरणशास्त्रके भी पण्डित थे। राजनीतिश सोमदेव । सोमदेवके राजनीतिज्ञ होनेका प्रमाण यह नीतिवाक्यामृत तो है ही, इसके सिवाय उनके यशस्तिलकमें भी मशोधर महाराजका चरित्रचित्रण करते समय राजनीतिकी बहुत ही विशद और विस्तृत चर्चा की गई है । पाठकोंकोचाहिए कि वे इसके लिए यशस्तिलकका तृतीय आश्वास अवश्य पढ़ें। ____ यह आश्वास राज तिके तत्त्वोंसे भरा हुआ है । इस विषयमें वह अद्वितीय है । वर्णन करनेकी शैली बड़ी ही सुन्दर है। कवित्वकी कमनीयता और सरसतासे राजनीतिकी नीरसता मालूम नहीं कहाँ चली गई है। नीतिवाक्यामृतके *अकलंकदेव-अष्टशती, राजबार्तिक आदि प्रन्थोंके रचियता । हससिद्धान्तदेव- ये कोई सैद्धान्तिक आचार्य जान पड़ते हैं । इनका अब तक और कहीं कोई उल्लेख देखनेमें नहीं आया । पूज्यपाद-देवनान्द, अनेन्द्र व्याकरणके कर्ता।

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